________________ मिरुतुजत्रिविरचित श्रीनामाकराजाचरितम् | वयःस्थ: सोऽन्यदा देव-कोषं हत्वा पलायितः॥ स्तेना मुषित्वा तं पार-सीकदेशे विचिक्रियुः / / 141 // तत्र वस्त्राणि रज्यन्ते, तस्य रक्तस्ततोऽसको॥ पलाय्याऽम्भोधिमुत्तीर्य, ब्रजनध्वनि कुत्रचित् // 142 // ग्रामप्रवेशेऽभ्यायान्तं मुनिं मासोपवासिनम् // विहत्य यष्ट्या त्रीनू वारानू पाप: पृथ्व्यामपातयत् // 143 // तस्मिन्नथ विपन्नेऽसी, नश्यन्नारक्षकैधृतः॥ मृत्वा दावाग्निनाऽरण्ये, सप्तमं नरकं गतः॥ ऋषिहत्यामहापापं, तत्कालं स्यात् फलप्रदम् // 145 // सागराणि त्रयस्त्रिंश-त्तत्र भुक्त्वा महाव्यथा:।। उद्धृतो घोरसंसारं भ्रमित्वा हालिकाऽभवत्॥१४६॥ कौशिकाख्योऽम्बरग्रामे, ग्रामेशस्य गृहे च सः॥ कर्माणि कुर्वन् सर्वेषां, हालिकानां कृतेऽन्यदा // 147 // आदाय भक्तं प्राचालीत् मासोपवासिनम्ता। वीक्ष्य सम्मुखमायान्तं मुनिं भक्त्या न्यमन्त्रयत् // 148 // यात्रायफलं पूर्व प्रत्यब्दं यत् समुद्रतः॥ तेन प्राप्तं तत: पुण्यात् तस्यैषा वासनाऽजनि।।१४९॥ स्यादेतद्भक्तभोक्तृणामन्तरायस्ततोन मे॥ कल्पतेऽन्नमिदं साधुनेत्युक्तेच सको जगी॥१५॥ कृत्वोपवासमप्यघ, दास्ये भक्तं निजं ध्रुवम् // सद्य: प्रसध गृलीतेत्याग्रहादग्रहीद मुनिः॥१५॥ तत: कृत्वोपवासं स निषेधं चाऽसुमद्वधे।। साधो: पार्थात् प्राप्तराज्यमिवात्मानममन्यत // 152 // एवमर्जितसत्कर्मा कौशिको भद्रकाशयः॥ विपद्य चित्रकूटाद्रौ, चित्रपुर्या नृपोऽभवत् // 153 // चन्द्रादित्याभिधः शुध्ददयापुण्यविभावितः॥ निरामयो महारूपा - ऽनङ्गीकृतमनोभवः // 15 // तस्याऽऽकण्ठवपुर्दुष्ट-कुठेनाश्लिष्टमन्यदा॥ तेनाऽऽकण्ठपटीच्छन्न-देह एव स तिष्ठति // 155 // कदाचित् प्रौढपापरिपि पापदिहेतवे। तत्सामग्रीयुत: प्राप, श्वापदानां पदं वनम् // 156 // तत्र रजत्तुरङ्गेण, कुरजवधरङ्गतः॥ धावमानो मुनिं कायोत्सर्गस्थं वीक्ष्य पृष्टवान् // 157 // कस्यां दिशि मृगा जग्मु-स्त्रि: प्रोक्तेनाऽवदन्मुनिः। राजा जिघांसुर्बाणेन, तमपि स्तम्भितोऽभितः॥१५८॥ कार्योत्सर्ग पारयित्वा मुनिस्तारस्वरंजगी॥ प्राच्याच्छुटसि नाऽद्यापि, नव्यं च कथमर्जसे?॥१५९॥ मुनेर्निनंसया सधो, मुत्कलाङ्गोऽथ भूपतिः॥ प्राच्य * नव्यदिवृत्तान्तं, पप्रच्छ प्रणिपत्य तम् // 160 // P.P.AC. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak inst