________________ || জাহিলিঝি স্যক্তিজস্থিহিন্দু। अथ तस्मिनस्तिरोभूते, व्यन्तर क्षोणिनायकः।। राजप्रसादम तत्राप्य, दन्तिदन्तजिघृक्षया॥ साक्षात पुण्यफलं दृष्टवा - ऽभवत्तत्रैव सादरः / / 101 // घोरे स्वयमरण्यऽगा-दलाभादन्यवस्तुनः // 11 // बुद्धिं बन्धोरपि श्रेयो-विषये काइक्षताऽन्यदा॥ स तत्र दन्तिवधकै - दन्तवृन्दान्यथाऽऽनयत्॥ तामलिप्त्याम् तदाहूति-हेतो: प्रेषि निजो नरः // 102 // पापद्रव्येण यत् पापे-ध्वेव बुद्धिः प्रजायते // 112 // स तत्र गत्वाऽगत्यार्थम्, प्रोचे सिम्हाऽस्ति तत्र न॥ भृत्वा चत्वारि यानानि, दन्तैर्वारिधिवर्त्मना। प्रपलाय्य गत: वापी-त्यापि शुद्धिः परेन तु // 103 / / मुक्त्वा कुदम्बम् तत्रैव, सुराष्ट्रान प्रति सोऽचलत् // 11 // न्यायेन पालयन राज्यम्, प्रत्यब्दम् स्वकुटुम्बयुक।। ती. समुद्रम् क्षेमेण, सुराष्ट्रतटसङ्कटे / यात्रा अनेकश: कुर्वम्-श्चिरम् सौख्यमभुङ्क्त सः॥१०॥ भग्नानि तानि यानानि, न हि श्रेयोऽतिपापिनाम्॥११४॥ अभूतपूर्वम् * श्रुत्वा त-बैरनिर्यातनम् नृपाः / / तत: सिम्हा विपद्याऽऽध-नरकम तत्र वेदनाः॥ कम्पमाना: साभिमाना, अप्यस्मै नेमिरे स्वयम // 105 // विषयौद्धृत्य सात: सिम्हो हिंसापरायणः // 115 // राज्ये न्यस्य सुतम् ज्येष्ठम्, लक्ष्मीम् कृत्वाथ पुण्यसात् // आधम् गत्वा पुन:श्वभ्रम, जज्ञे दुष्टसरीसृपः॥ समुद्रपालो वैराग्याद्, व्रतमादत्त सद्गुरोः // 106 // बितीयनरकम भुक्त्या , दुष्टपक्षी बभूव सः॥११६॥ अथैकविम्शतिघस्त्रान्, साधिताऽनशन: शमी।। तृतीयनरकम् प्राप्य, दुष्टसिम्होऽभवद् वने।। जज्ञे सर्वार्थसिद्धाख्ये, विमानेऽनुत्तरे सुरः॥१०७॥ चतुर्थनरकम् गत्वा, सर्पोऽजायत दृग्विषः // 117 // ततश्च्यत्वा कुलम् शुद्धम्, लब्ध्वा समयमराज्यतः॥ पश्चमम् नरकम् लब्ध्वा, चण्डालस्त्री ततोऽजनि। आसाथ केवलम् ज्ञानम्, मोक्षसौख्यमवाप सः॥ 108 // अवाप्य नरकम् षष्ठ-मजनिष्टाऽणव तिमिः // 118 // इतश्च तामलिप्त्याम् स, सिम्ह: श्रुत्वा स्वबान्धवम् // 'सप्तमम् नरकम् गत्वा, मत्स्योऽजायत तन्दुलः॥ राज्ञा विसृष्टम सत्कृत्य, यात्रार्थम् सत्यभाषणात् // 10 // पुन: सप्तममेवाऽगा-नरकम् दुःखसागरम् // 119 // निजाऽऽग:शङ्कया सर्वमादाय सपरिच्छदः॥ विपर्यासन चण्डाल - स्यादियोनिषु पूर्ववत् // जगाम सिम्हलद्वीपम्, पोतमारुह्य तत्क्षणात् // 110 // . क्रमेण सेढे कष्टानि, षष्ठादिनरकेषु च // 120 // TERRRRR [7]******* Jun Gun Aaradhak Trust P.P.AC.Gunratnasuri M.S.