________________ श्रीनरुतजरिविरचित श्रीनामाकराजाचरितम्। ततो निपतितो घोरे, संसारे दुःखमागरे। प्रागहं सप्तजन्मभ्यः, पूजयित्वा सदा शिवम्॥ देवद्रव्यविनाशस्य, ज्ञेयम् सर्वमिदम् फलम् // 121 // देवस्वभीत्या प्रक्षाल्य, पाणी भोजनमाचरम् // 131 // अन्यायात् स्वल्पदेवस्य - भक्षणादपि यद्यभूत् // स्त्यानाप्यमन्यदा लिङ्गपूरणे लोकढौकितम् // शैव: श्रेष्ठी सप्तकृत्व:, श्वाऽतो वै त्याज्यमेव ततः // 122 // विकरणेऽस्य काठिन्याद्, नखान्त: प्राविशन्मम // 132 // अत्रान्तरे विभो! कोऽसौ, श्रेष्ठी जातश्च श्वा कथम्? विलीनमुष्णभक्तेनाऽजानता तन्मयाऽऽहृतम् // इति नाभाकभूपेन, पृष्टे गुरुरभाषत // 123 // तेन दुष्कर्मणा सप्त-कृत्वो जातोऽस्मि मण्डनः // 13 // उत्सर्पिण्यवसर्पिण्यो-भरलैरावतक्षितौ। सप्तमेऽस्मिन् भवे राजन्। जाता जातिस्मृतिर्मम। प्रत्येकम् किल जायन्ते, शलाका: पुरुषा अमी॥१२॥ अधुना तत्प्रभावेणोत्पन्ना बाग मानुषी पुनः॥१३॥ चतुर्विमशतिरहन्त-स्तथा द्वादश चक्रिणः॥ अत्रान्तरे गुरुं नत्वा, जगी नाभाकभूपतिः॥ विष्णुप्रतिविष्णुरामा:, प्रत्येकम् नवसङ्ख्यया // 125 // श्रुत्वैतिहमदो बाढं, कम्पते हृदयं मम // 135 // एतेषु पूर्व श्रीरामो, राज्यं न्यायेन पालयन्।। गुरुरूचेऽथ यद्येवं, तत्कथामग्रतः शृणु।। कृपया नि:स्वलोकानाम, न्यायघण्टामवीवदत् // 126 // यथा सम्यक् फलं वेत्सि, देवद्रव्यविनाशिनाम् // 136 // . एकदा कुकुर: कश्चि - निविष्टो राजवर्त्मनि। षष्टि वर्षसहस्त्राणि, शीशत्रुञ्जयपर्वत॥ केनचिद् विप्रपुत्रेण, कर्करेणाहत: श्रुतौ // 127 // आयुर्भुक्त्वा नागजीवो, व्यन्तरश्च्युतवानथ // 137 / / श्वा निर्यद्रुधिरोन्याय-स्थानं गत्वा निविष्टवान् / कान्तिपुर्या रुद्रदत्त - कौटुम्बिकसुतोऽभवत् // भूपेनाहूय पृष्टोऽवग, निरागा: किमहं हतः॥१२८॥ सोमाभिधानस्तन्माता, पञ्चमेऽब्देऽहिना मृता॥१३८॥ तद्घातकं विप्रपुत्रं तत्रानाय्य नृपोऽब्रवीत् // तत्रास्ति नास्तिक: प्राति-वेश्मिको देवपूजकः॥ असौ त्वद्घातको ब्रूहि, कोऽस्य दण्डो विधीयते // 129 // सोमोऽपि सह तत्पुत्रै-योति देवनिकेतने॥१३९॥ श्वाऽवोश्चदस्य रुद्रस्य, मठेऽयं हि नियोज्यताम् // देवद्रव्यमयैः पूजा-ऽवशिष्टैश्चन्दनैर्वपुः॥ क एष दण्डो राज्ञेति, पृष्टः श्वा च पुनर्जगौ॥१३०॥ विलिप्याकण्ठमाच्छाध, वाससा पर्यटत्यसौ॥१४०॥ RRRRR 8ERE