________________ श्रीमरुतुङ्गभूरिविचित श्रीनाभाकराजाचरितम् | ते प्रोच परं विनो, विशेषं किन्तु सङ्गगे अबध्यामहि दुर्बुद्ध्या, युध्यमानाः स्वयं वयम् // 821 // परं भवत्प्रसादेन, च्छुटिता नाऽत्र सम्शयः॥ अत: स्वसेवकान् यावज्जीवं स्वीकुरु नोऽधुना // 8 // इत्युक्त्वा सेवकीभूतै-स्तैरेवाऽसौ परिवृतः॥ स्वपुरं प्राविशत प्राज्य-प्रवेशोत्सवपूर्वकम् / / 83 // सभ्यान सभायामाभाष्य, विसृज्य च नृपानसौ॥ सौधान्त: पूजयन देवान, ददर्श व्यन्तरं पुरः / / 84 // पृष्टः कस्त्वमिति क्षोणि-भृता स व्यन्तरोऽवदत् // तामलिप्त्यामहं नाग-नामा प्राग गोष्ठिकोऽभवम् / / 85 // पूर्वजै: कारिते चैत्ये, सारां विदधतो मम।। कुटुम्बं सकलं क्षीणं देवस्वैनैव पोषितम् // 86 // देवद्रव्योपभोगेन, कुटुम्बस्य क्षयो भवेत् / / नैमित्तिकादिति श्रुत्वा, भीत: कर्म तदत्यजम् // 87|| चतुर्विशतिदीनार-सहस्त्री याऽन्तिकेऽभवत्। देवसत्काऽवशिष्टा सा, क्षितौ क्षिप्ताऽथ पत्रयुक्॥८८॥ कृत्यैर्यथोचितैर्जीवन् / प्रान्तेऽहम् कष्टतो निशि॥ स्थविर्या प्रातिवेश्मिक्या, पठ्यमानम् मृदुस्वरम् // 8 // श्रीशत्रअयमाहात्म्यम्, शृण्वन्नेकाग्रमानसः॥ मत्वा तदध्यानतोऽभवम व्यन्तोऽत्रैव पर्व // 9 // तत्र पूजाक्षणे स्वीयं, नाम श्रुत्वा भवन्मग्वात् // स्मृत्वा च पूर्ववृत्तान्तम्, प्रीतचेता व्यचिन्तयम् // 11 // साध्विदम् विदधे देव - द्रव्यं यद्देवपूजने॥ व्ययितं तत् किमप्यस्य,सान्निध्यं विदधेऽधुना॥१२॥ अत: सहागतेनैव, यन्त्रितास्ते मयाऽरयः॥ अल्पशक्तिः परं नाऽह - मन्यत्र स्थातुमीश्वरः // 13 // अतो यातास्मि तत्रैव, परं यात्रादयस्य मे॥ प्रत्यब्दं सुकृतं देयं, प्रपेदे सोऽपि तद्वचः // 14 // यद्वस्तु दीयते चेत्तत्, सहस्त्रगुणमाप्यते॥ ताद्दत्ते सुकृते पुण्यं, पापे पापं च तद्गुणम् // 15 // दीयमानं धनं किश्वश्च, धनिकस्याऽपचीयते // सुकृतं दीयमानं तु, धनिकस्योपचीयते // 16 // श्राव्यते सुकृतं यावद्, योऽन्तकालेऽपि तावतः॥ निजश्रद्धानुमानेन, स तदैवाऽश्नुते फलम् // 17 // तत: श्रावयिता पश्चाद्, विधत्ते मानितम् यदि॥ तदा सोऽप्यनृण: पुण्य-भाग भवेदन्यथा न तु // 98 // अभावितोऽपि श्रद्धत्ते, सुकृतं यः कचिद्गगतौ // जानन् ज्ञानादिभावेन, सोऽपि तत्फलमाप्नुयात् // 19 // अन्यथा सुकृतं तन्दन, स्वजन: स्वजनाख्यया॥ व्यवहारपीतिभली-रेख जापयति ध्रुवम् // 10 // P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust