________________ -45 मृगापुत्र / यथा तोलयितुं मेरु-स्तुलया किल दुष्करः // तथा विशुद्धं निःशंकं / श्रामण्यं पुत्र दुश्चरं // 41 // 6 चरित्रम् अर्थः-वळी हे वत्स! खरेखर मेरुपर्वतने कांटामां नाखी तोलदो जेम मुश्केल छे, तेम निःशंकपणे निर्मल चारित्र पालवु महा। // 11 // मुश्केल छे. // 41 // भुजाभ्यां च यथांभोधि-स्तरितुं न हि शक्यते // तथा प्रशमपाथाधि-रप्रशांतैनरैरलं // 42 // अर्थः-वळी वे हाथवडे जेम महासागर तरी शकातो नथी, तेम शांति रहित हृदयवाळा पुरुषो चारित्रपीरू महासागर तरवाने समर्थ थता नथी. // 42 // भुंक्ष्व मानुष्यकान् भोगां-स्ततस्त्वं पंचलक्षणान् // वार्धक्ये भुक्तभोगः सन्। वत्स चारित्रमाघरेः॥४३॥ अर्थः-माटे हे वत्स! तुं आ मनुष्यभवसंबंधि (पांचे इंद्रियोना) पांचे प्रकारना भोगो भोगवी अने एरीते भोगो भोगव्यावाद वृद्धावस्थामां तुं चारित्रनो स्वीकार करजे? // 43 / / पित्रोस्तदुक्तमाकर्ण्य / मृगापुत्रेऽब्रवीदिदं // निःस्पृहस्येह लाके मे। न किंचिदपि दुष्करं // 44 // अर्थः-माता पिताना एवां वचनो सांभळीने मृगापुत्रे एम कह्यु के, (हे पूज्यौ! ) आ संसारमा कोइ पण प्रकारनी लालचथी, रहित थयेला एवा मने ( चारित्र लेवामां ) कंइ पण ( हवे ) मुश्केली नथी. // 44 // // 11 // M unratnasun M.S. Jun Gun Aaradha