________________ धर्मः | तध्वं सर्वदा धर्मे / येनेदं सफलं भवेत् // 34 // इति वणिक्रयकथानक परिसमाप्तं // भूयोऽपि / दीका धर्म प्रशंसयन् श्लोकचतुष्टयमाह // मूलम् ॥-संप्राप्य मानुषं जन्म / दुर्लनं नवकोटिनिः॥ व्यापारितं सदा धर्मे / यैस्ते ह्यत्र नरोत्तमाः // 1 // गबतां दुर्गसंसार-मार्ग पर्यंतवर्जिते // धर्मसंबलमृते पुंसां / मुःखमानि पदे पदे // 5 // सीदंत्यत्र न यैर्धर्मः / सम्यगासेवितः पुरा // सांप्रतं न च कुर्वति / तेषामग्रेऽपि नो सुखं // 3 // तदेष भगवान धर्मो / दुर्गतिगतधारकः // सभिः सदैव कर्तव्यः / सर्वसौख्यनिबं. धनं // 5 // व्याख्या-संप्राप्य लब्ध्वा मानुषं मनुजनवसंबंधिजन्म जननं लभं दुःप्रापं जवको. विनिर्नरकादिनवलक्षशतसहस्रैर्व्यापारितं नियोजितं सदा नित्यं धर्म सदनुष्टानरूपे यैः कैश्चिदनि र्दिष्टनामनिस्तेऽत्रास्मिन् लोके नरोत्तमाः प्रधानपुरुषाः. // 1 // गबतां व्रजतां दुर्गसंसारमार्गे विष. मनववर्त्मनि पर्यंतवर्जिते निधनरहिते धर्मसंबलं धर्मपाथेयमृते विना पुंसां पुरुषाणां दुःखमानि दुःखशतविधायित्वाद् दुःखानि पदे पदे स्थाने स्थान इति. // 2 // सोदति समनिलषितार्थापूर्त्या / दुःखमनुनवंति, अन मनुष्यनवे न नैव यैर्नरैर्धर्मः सुदरानुष्टानं सम्यकं शोजनेन न्यायेनासेवितः P.P.Ad Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust