________________ - धर्म क्रमेण गबता दृष्टं / काननं विपदाननं // तत्र लातुं समारब्धा / बुब्धकैः पाशबंधनैः // 33 // | का वागुरासु विचित्रासु / सारंगास्त्रस्तलोचनाः // परं ते पतिता नात्र / ह्यप्रमत्ततया तया // 34 // युग्मं // नानाविधैरुपायैस्तै-धैिर्हतुं समीहिताः // रक्षिता निजमात्रेव / निःप्रमादतया तया // 364 | // 35 // अप्रमादप्रसादेन / जातास्ते चिरजीविनः // निर्विमनसो व्याधाः / सविषादास्ततो ग. ताः // 36 / / ततो मया विचिंत्येव-मप्रमादो हि सौख्यदः // कर्तुं युक्तो ममाप्येष / तथैव कृतवानहं // 37 // एवं मे गुखो जाताः / सारंगास्तत्र कानने // अप्रमादविधौ न / सदा चकित. चेतसः // 30 // ततोऽग्रे गबता दृष्ट / इषुकारः पुरादहिः // शरवातमजूकुर्व-निश्चलीकृतमानसः // 35 // यत्रांतरे समायातः / पुमानेकस्तदंतिके // तेनोक्तं किं त्वया दृष्टो / गबन राजामु. ना पथा // 40 // स प्राह न मया दृष्टः / स्वकर्मैकाग्रचेतसा // ततो मया व्यचिंत्येवं / न चायं विकटेडियः // 41 // अथ चानेन नो दृष्ट–श्चतुरंगबलान्वितः // राजा गबन समीपेन / मह देतत्कुतुहलं // 42 // यस्मात्स्वकार्यनिष्टत्वा-देकचित्तैर्न दृश्यते // चलं वा स्थाणु वा वस्तु / | समीपेऽपि शरीरिभिः // 43 / / एकाग्रचेतसामेव / स्वार्थसिधिरपि ध्रुवं // तन्मयापि मनः कार्य- | . P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust