________________ 296 धर्मलितं // 6 // नव्यन्नव्यव्यवस्थेन / वरनेपथ्यधारिणा / / रूपसौनाग्ययुक्तेन / लोकविस्मयकारिण बीका // 7 // नरनारीसमूहेन / युक्तं युक्तविधायिना / / सुरपट्यंकतुल्येन / पत्यकेन समन्वितं // 7 // कारितं च दणादेव / मंत्रिणा निजमंदिरं // ततो भृत्यैः स जत्तिप्य / तत्र पर्यकके वरे // 7 // निवेश्य देवदूष्याज-पटेनागदितस्ततः / संजातो मृतसंकाश-स्तस्करो रौहिणायकः // 10 // कुलकं // यथास्थानं स्थितो लोको / मंत्रिणैवं च शिदितः / यथा जो जो विधातव्यं / रौहिणीयकसंझितं // 11 // यथायं सहते नाम | नाम्नैव नः प्रयोजनं // स्वयमेकांतदेशे च / शृण्वन्नसौ व्यवस्थितः // 1 // . चौरेणापि जितश्चूर्ण-स्ततं उद्घाटितं शिरः // विलोक्यादृष्टपूर्व त-हं रम्यजनं तथा // 13 // चिंतितं च किमेतद्भो / मन्नेत्रानंदकारकं / / दृश्यते सर्वमेवान / मयानीदितपूर्वकं // 14 // यावदेष मनस्येवं / सर्वतः दिप्तलोचनः // विस्मितश्चिंतयामास / तावदानंदनिर्नरः // 15 // ज. नोऽपि गातुमारब्धः / प्रतीहारेण वारितः // रेरे कल्यं न जानीय / स्थिरीजवत सांप्रतं // 16 // स्थितेषु तेषु तेनोचे / यथा शृणु सुरप्रभो // सौधर्माख्यो ह्ययं स्वर्गो / विमानमरुणप्रनं // 17 // | PP.AC. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aarathak Trust