________________ टीका धर्मः / ते प्रियं // 17 // जैनेंद्रागमसंपर्का-विज्ञाय बहुदृषणं // ततः संतोषमादाय / महासत्वैर्निराकृतं // 65 / / गृहस्था अपि ते संतो। शाततत्वा जिनागमे / हृषीकपंचलौल्येन / नाचरंति कुचेष्टिः तं / / 70 // यदा पुनर्विशेषेण / तिष्टत्येष जिनागमः // हृषीकपंचसंबंधं / त्रोटयंति सदाखिलं // 24 // 11 // यतो दीदां समादाय / निर्मलीकृतमानसाः // संतोषभावतो धन्या / जायतेऽत्यंत निस्पृ. नाः // 12 // ततस्ते नवकांतार-निर्विणा वीतकल्मषाः // इंद्रियप्रतिकूलानि / सेवंते वीरमान साः // 73 / / नृमीशयनलोचादि-कायक्लेशविधानतः // ततः सुखस्पृहां हित्वा / जायतेऽतिनिराकुलाः // 14 // ततः सकलकर्मीश-क्लेशक्जेिदभाजनं // त्वा ते निर्वृतिं यांति / निर्जित्येंद्रियपंचकं // 15 // तेनोत्कृष्टतमा राज-निर्दिष्टास्ते विचदणैः // ये चैवमनुतिष्टंति / विरलास्ते जगतत्रये // 16 // सांप्रतं च तथोत्कृष्ट-नराणां शुधचेतसां / / स्वरूपं श्रूयतां राजन् / कथ्यमानं | मयाधुना / / 17 / नत्कृष्टास्ते नरा ज्ञेया / यैश्च पंचेंद्रियं जितं // अवाप्य मानुषं जन्म / शत्रुबु. ध्यावधारितं // 70 // जाविनद्रतया तेषां / परिस्फुरति मानसे // नैवैतत्सुंदरं हंत / पापमिंज्यिपं. | चकं // 7 // ततो विझाय ते तेषां / लोकवंचनतां नराः / सर्वत्र चकिता नैव / विश्वसंति क P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust