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________________ 111 धर्मः | नार्य-स्त्रिदशपतिरहस्यां तापसी यत् सिषेवे // हृदयतृणकुटीरे दीप्यमाने स्मरामा-चुचितमनुः | चितं वा वेत्ति कः पंडितोऽपि // 1 // जराजीर्णः कायः श्रुतिविरहितं कर्णयुगलं / बलभ्रष्टा दृ. | ष्टिः पलितकलितं मस्तकमिदं / तथाप्युच्चैर्वाणान् किरति सततं कामहतको / हहा कष्टं कष्टं कथयत कथं मुक्तिरमुतः // ए // ततः किंचित्सतोषेण / शृंगवैरतपखिना // अर्धाकृत्य निजं शापमहमेवंविधः कृतः // 13 // कुरंगकेसरा शप्ता / जाता नारी शिलामयी // गौतमस्य पदे स्पृष्टे / पापे पापात्प्रमोदयसे // 4 // यद् दृष्टं तन्मयादिष्ट-मन्यो ब्रूते मयापि च // यद् दृष्टं तत शृ: एवंतु | नवंतो विहितादराः॥ 5 // उत्तरस्यां दिशि श्रेष्टं / समस्ति शुवि विश्रुतं // पुरं पंचपुरं नाम / मेदिनीमुखमंझनं // 6 // तत्र राजा महामलो / रणनियूंढसाहसः / / संपूर्णो रिकोशेन / चतुरंगबलान्वितः / / ए // ते. न धन्येन धर्माय / ज्ञानसत्रं प्रवर्तितं // अध्यापको धृतस्तत्र / सविद्यश्गत्रपाठकः // 7 // श. तानि पंच गत्राणां / पेठुस्तत्र निरंतरं / / नोजनाबादनं तेषां / प्रदत्ते मेदिनीपतिः // 7 // रा. | जपुत्रोऽपि पागर्थ / गतस्तत्र सकौतुकः // अध्यापककृतानुशः / प्रारब्धः पठितुं कलाः // 200 / / P.P.AC. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
SR No.036436
Book TitleDharmratna Karanda Tika Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVardhamansuri
PublisherShravak Hiralal Hansraj
Publication Year1915
Total Pages404
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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