________________ सार्थ 621 धम्मि- वनंगमी // 77 // तत्र चर्चा समं गले-रत्यंतकोपनुः // प्लोषत्यशेषसौख्यन् / दीप्तः | कोपो. हि वह्निवत् // 9 // रोचते ते न चेदेष-स्तदा युवसु जरिषु // वृणुयास्त्वं मनोऽनीष्टमपरं तत्र कंचन // 5 // वसे स्वबंदता न स्या-कदाचन सुखावहा // दृष्टांतादसुदत्ताया-स्तथारिदमनस्य च // 70 // मातः सा वसुदत्ता का / को वारिदमनो नृपः // एवं कमलया पृष्टे / निर्व्याज व्याजहार सा / / 71 // यस्त्यवंती सवंतीव / पुरी सत्कमलालया। तत्राघनदत्ताख्यः रिसाथे त्यां जजे, अने हवे अति गुस्सावाळी न थजे, केमके दीपायमान थयेलो कोप अग्निनीपेठे सर्व सुखोरूपी वृदोने बाळी नाखे . // 7 // अने कदाच तने आ नार न रुचतो होय तो त्यां घणा युवानीया मांथी कोश्क बीजा मनगमता नरिने वरी लेजे. // 70 // वली हे वत्स! स्वबंदीपणुं को पण समये सुखकारी नीवडे नहि, तेमाटे वसुदत्ता तथा अरिदमनन दृष्टांत जाणी लेवू. // 70 // हे माता! ते वसुदत्ता कशी तथा अरिदमन राजा कयो? एमक मलाए पूज्वाथी तेणी निष्कपटपणे बोली के, // 71 // उत्तम लक्ष्मीना ( कमलोना) स्थानस रखी नदीजेवी अवंती नामनी नगरी बे, त्यां महाधनवान धनदत्त नामे सार्थवाह रहेतो हतो. // P.P.AC.GunratnasuriM.S. Jun Gun Aaradhak Trust