________________ 440 धम्मि- रत् खेचरदयं // निश्चलीच्य शुश्राव / धैर्यप्राणप्रमाथिनं // 25 // सविवेकस्तयोरकः / परार्थर सार्थ | सिकः खगः // पत्न्येव कृपया नुन्नो-ऽवातरत्तत्र कानने // 30 // किं रोदिषीति तेनोक्ते-ग लदत्तो गलन्मदः // तां व्यालगरलग्रस्त–चैतन्यां समदर्शयत् // 31 // जत्तिष्ट नई निस्तंद्रमित्युदित्वाथ खेचरः // तां चक्रे निर्विषां स्पृष्ट्वा / पाणिनामृतवर्षिणा // 32 // रथिकोऽपि निशी. थेऽपि / प्राप्तः प्रीतिमयं महः // स्तौतिस्म विस्मितः खेटं / प्रणम्य रचितांजलिः / / 33 // जय त्वं रने लीधे नष्टदृष्टिवाळो थयो बु. // 2 // एवी रीते धैर्यरूपी प्राणनो नाश करनारो ते वखतनो तेनो विलाप आकाशमां चालता बे विद्याधरोए निश्चल थश्ने सांजव्यो. // // तेज बन्ने माथी एक परोपकारी विद्याधर पत्नीथी जेम तेम दयाथी प्रेरायोथको त्यां वनमा जतो. // 30 // तथा तेणे अगलदत्तने पूज्यं के तुं केम रडे जे? त्यारे रांकडाजेवा बनेला अगलदत्ते पण सर्पना फेरथी नष्टचैतन्यवाळी पोतानी ते स्त्री बतावी. // 31 // त्यारे ते विद्याधरे तेणीने कां के हे न! तुं निस्तंऽ थश्ने उठ? एम कहीने अमृत वर्षता एवा पोताना हाथथी स्पर्श करीने ते. | णे तेणीने फेररहित करी. // 32 // हवे मध्यरात्रीए पण प्रीतिमय तेजने पामीने ते अगलदत्त / P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust