________________ धम्मिः राज्ञो हृतधनैखि // 17 // सपौरुषैः स पुरुषै-र्धनोऽपि तमशोधयत् // कापि नापत्पुनः पाथोसाई नाथांतच्युतरत्नवत् // 10 // सापि बाला शुचोत्ताला / विलपंती वियोगतः // वर्म ग्रीष्मस्य वासा. | य / वर्षाणां चाक्षिणी ददौ // 17 // हृदि संक्रांतदुःखौ तौ / पितरौ तामवोचतां // धत्से वत्सेs. 05 | व्यवछेदं / किं खेदं चेति चिंतया // 20 // निवकं प्राग्नवे कर्म / जंतुना यच्चुनाशुनं / प्रत्य| ति निरोधं त-दिपाकं नाकिनोऽपि न // 21 // प्राग्नवोपार्जितं कर्म / ददातीह नवे फलं // ग. रायेला धनवाळा जेम राजापासे तेम तेजए धनशेग्नीपासे पोकार को. // 17 // त्यारे हिमतवान पुरुषो मारफते धनश्रेष्टिए तेनी शोध करावी, परंतु समुद्रनी अंदर पडेलां. रत्ननीपेठे ते क्यांय पण हाथ लाग्यो नहि. // 10 // शोकथी व्याकुल थयेली ते धनश्रीए पण जरिना वि. योगथी विलाप करतांथकां ग्रीष्म ऋतुने वसवामाटे पोतानुं शरीर तथा वर्षा ऋतुने वसवामाटे पो. तानी आंखो पापी. // 17 // त्यारे हृदयमां दुःखी थयेला तेणीना मातपिता तेणीने कहेवा ला. ग्या के हे वत्स! तुं श्रावी रीतनी चिंताथी शामाटे अत्यंत खेद धारण करे . // 20 // पूर्व न. ! वमां प्राणीए जे शुभ अथवा अशुन कर्म बांध्यु जे तेना विपाकने रोकवाने देवो पण समर्थ था | PP.AC.Gunratnasun M.S. Jun Gun Aaradhak Trust