________________ 463 | धम्मि- ऽवन्या-मन्योऽन्यं संहिता वयं // अस्मदैराग्यवृदस्य / बीजमेवं मृगेक्षणा / / 37 / / इति श्रुत्वा न वाद्भिन्न-पथीतमना रथी / बभाषे जगवंस्तं मां / विधि स्वव्रातृघातकं // 30 // अहं पत्न्यास्तव गिरा-ज्ञासिषं गूढमायितां // ग्राम्यो नागरिकस्योक्त्या / मणेः कृत्रिमतामिव / / 35 / / भाग्यवान | स्मि नूनं य-न हन्येस्म तदा तया / / नो चेदर्तिवशो मृत्वा-उजविष्यं नरकाध्वगः // 40 // | सरितः सिकता बिंदूं-नब्धेव्योनि च तारकाः // संख्यातुमीशते ददा / न दोषान् योषितां पुनः // त्यारथी श्रमो परस्पर मदद करताथका पृथ्वीपर विहार करीये जीये, एवी रीते अमारां वैराग्यरूपी वृक्षानुं बीज स्त्री ने. // 37 // ते सांजलीने संसारथी विरक्त मनवाळो अगलदत्त बोल्यो के हे न. गवन ! तमारा भाश्ने मारनार तरीके यापे मनेज जाणवो. // 30 // वळी एक गामडीने नगरना लोकना वचनथी जेम मणीनु बनावटीपणु जाणे तेम पापना वचनथी में मारी स्त्रीनुं गूढ क. पटीपणुं जाण्यु जे. // 30 // खरेखर हुँ जाग्यवान बुं के ते वखते स्त्रीची मरायो नहि, नहितर भार्तध्यानपूर्वक मरीने मारे नरकमां जवु परत. // 40 // विद्वानो नदीनी वेळू, समुद्रना बिंद | तथा श्राकाशमा रहेला ताराननी पण संख्या करी शके डे, परंतु स्त्रीना दोषोने गणी शकता. P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust