________________ इस शताब्दी के समर्थ विद्वान् आचार्य, श्रीमविजयधर्मधुरन्धर सूरीश्वरजी महाराज ने भी ऐसी अनेक कृतियों का निर्माण किया, जिनका स्वाध्याय उभयलोक को सार्थक बनाने में पूर्ण समर्थ है / कवि-शिरोमणि पूज्यवर सूरीश्वरजी महाराज काव्यरचनाओं के साथ ही पूर्वाचार्यो द्वारा निर्मित, महत्त्वपूर्ण प्रौढ संस्कृत भाषा की कृतियों को व्याख्याओं द्वारा, सरल भाषानुवाद द्वारा समाज को परिचित कराने का भी सदा उपक्रम करते रहे / इस सन्चय में 'पन्चपरमेष्ठि-गुणमाला' का प्रथम पाठ काव्यरचना की दृष्टि से बहुत ही उत्तम कृति है / शिखरिणी छन्द की स्तुति-साहित्य में जैसी मधुरता, पद-विन्यास, आलकारिक-विशिष्टता, सुमधुर गेयता प्रसिद्ध है, वैसी ही रचनाविदग्धता इस गुणमाला में सहज समाविष्ट है / गुणों की माला में गूंथे हुए पुष्पों की सुगन्धि से पाठक-स्तोता को आनन्दित करने के लिये 108 पद्यों पर सौरभवृत्ति लिखकर उसका गुजराती भाषा में अनुवाद भी आपने प्रस्तुत कर दिया है / यह 'गुणमाला' स्वयं श्रीमद्विजयधर्मधुरन्धर सूरीश्वरजी ने ही निर्मित की है, ऐसा आभास भी हमें इसके अन्तिम पद्य की डेढ़ पंक्ति में 'शुभध्याने मित्रा अमृत-पद-पुण्योधुर - धुरं-धरा धर्माध्वाना' , में आये अमृत, पुण्य और धुरन्धर पदों से होता है / किन्तु यह गुप्त नामांकन पद्धति कैसे आई ? यह निश्चित नहीं कहा जा सकता। वृत्ति में भी यह स्पष्ट नहीं किया गया है, अतः इसे पूर्वांचार्यकृत ही माना गया है / - द्वितीय रचना 'श्रीचतुर्विशतिजिनस्तुतयः' है / यह रचना भी अत्यन्त प्रौढ है / 'शार्दूलविक्रीडित छन्द में इसका निर्माण हुआ है / 28 पद्यों में पूर्ण यह रचना व्याकरण-शास्त्र के क्लिष्ट-क्रिया-प्रयोगों से पूर्णत: सुसम्पन्न है / यङन्त और यङलुगन्त-प्रक्रिया के माध्यम से निर्मित क्रियापदों का इस स्तुति के प्रत्येक चरण में समावेश किया गया है / ये प्रयोग प्रायः सर्वसाधारण संस्कृतज्ञ के ज्ञान से भौ परे हैं / इनका अर्थज्ञान तो दूर की बात है ही / अत: सूरीश्वरजी ने प्रत्येक क्रियापद की व्याख्या में उसका निर्माण-प्रकार व्याकरण की दृष्टि से अत्यन्त स्पष्ट कर दिया है / इसका गम्भीरता से अध्ययन करने पर प्राचानी विद्वानों की यह उक्ति नितान्त सत्य सिद्ध हो जाती है कि-'टीका गुरूणां गुरुः' टीका गुरुओं की गुरु है, जिसके द्वारा नवनिर्माण की प्रेरणा भी प्राप्त होती है। यह 'वृत्ति' P.P.AC. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust