________________ प्राक्कथनिका [ सम्पादकीय ] वर्तमान युग में मानवीय जीवन की व्यस्तता अत्यधिक शिखर पर पहुंची हुई है / कोई भी धार्मिक व्यक्ति अच्छे महापुरुषों के वचनों को सुनकर, गुरुजनों के उपदेशों को अपनाकर, स्वयं निष्ठा-पूर्वक कुछ आत्मकल्याण की अभिरुचि रखते हुए भी सांसारिक क्रिया-कलापों में ऐसा उलझा रहता है कि कुछ कर ही नहीं पाता / इस स्थिति को महामाया का प्रभाव बतलाकर धर्मशास्त्रों में इससे बचने के भी अनेक उपाय बताये गये हैं जिनमें सर्वोत्तम उपाय है-'स्वाध्याय' / सभी धर्मों में स्वाध्याय को सर्वोपरि सिद्ध करते हुए आचार्यों ने उसके पथ का प्रकाशन किया है। स्वाध्याय शब्द उत्तम, शास्त्रसम्मत, धर्म-मार्ग-प्रवर्तकप्रेरक साहित्य के अध्ययन के अर्थ को प्रकट करता है। स्वाध्यायशील मानव पथभ्रष्ट नहीं होता, उसके आचार-विचार, आहार-व्यवहार तथा आदान-प्रदान में अनियमितता, अधर्मता और असंगतता को अवकाश नहीं मिलता। ये सब गुण सहज ही स्वाध्याय से प्राप्त हो जाते हैं / इन्हीं के आधार पर उत्तरोत्तर उज्ज्वल जीवन बनता है और स्व-पर-कल्याण का मार्ग प्रशस्त बनता है। आज शान्ति और सन्तोष के लिये मनुष्य इधर-उधर भटक रहा है / मृगतृष्णा के कारण कहीं स्थिर समाधान उसे नहीं मिल रहा है किन्तु उसके पास जो अनन्त ज्ञान-भण्डार आयामों और आचार्यो की निर्मल वाणी में भरा है, उसे वह पहचान ही नहीं पा रहा है। पूर्वीचार्यों ने प्रायः उत्तमोत्तम साहित्य का निर्माण शास्त्रीय संस्कृत, प्राकृत, अर्धमागधी आदि भाषाओं में किया है / किन्तु उस भाषा का ज्ञान अब प्रायः सीमित हो गया है। इसीलिये परमोपकारी मुनिवर्य लोकभाषा में उसे अनूदित करके जन-जन तक पहुंचा रहे हैं / P.P.AC. GunratnasuriM.S. Jun Gun Aaradhak Trust