________________ आचार्यश्री के व्याकरण-शास्त्रीय अगाध ज्ञान की गरिमा को सिद्ध करती है। स्थान-स्थान पर आपने व्याकरणशास्त्र की दृष्टि से रूप-सिद्धि और उसके सिद्धस्वरूप को सिद्ध बताने के लिये तर्क-वितर्क भी दिये हैं। साहित्य-शास्त्र अनेक शाखाओं में विभक्त है। वह काव्य में कहाँ किस रूप में अभिव्यक्त हो रहा है, इस तथ्य को पहचानने से रचनाकार के सौष्ठव का परिज्ञान होता है, जो कि एक सहृदय विशेषज्ञ द्वारा पद-पद पर बहुत ही सूक्ष्मता के साथ आचार्यश्री ने समझाने का प्रयास किया है। व्याख्याकार रचनाकार के अन्तरंग से पाठक का साक्षात्कार तभी करा सकता है, जब उसकी रचना को विभिन्न माध्यमों से आलोडन-विलोडन करके उसकी अच्छाइयों को पुरस्कृत करे / उपयुक्त दोनों वृत्तियों में यह प्रवृत्ति आचार्यश्री की बहुधा परिस्फुट हो रही है। तृतीय रचना सुभापित-पद्धति में स्वयं आचार्यजी ने निर्मित की है और उसकी एक अभिनव विशेषता यह भी है कि अ से क्ष तक के सभी वर्गों को आदिस्थान देकर अनुष्टुप् छन्द में 51 पद्य बनाये हैं। रचना प्रासादिक, उपदेश प्रद तथा मनोरम है / इसका गुजराती पद्यानुवाद श्रीभानुभाई व्यास ने और गद्यानुवाद आचार्यश्री ने किया है। चतुर्थ कृति 'श्रीगौतमस्वामि-चरित्रम्' है। यह 'भुजंग-प्रयात' नामक छन्द के 34 पद्यों में निर्मित है / वैसे इसके प्रत्येक पद्य का चौथा चरण-'नमो गौतमस्वामिने मंगलाय' द्वारा पूरित है और पद्य के शेष 3-3 चरणों में प्रारम्भ से लेकर श्रीगौतमस्वामी चरित्र को क्रमशः गुम्फित किया है / इस प्रकार यह चरित्रबोधक स्तोत्र है / इसकी रचना सरल, भावपूर्ण एवं प्रसादगुणयुक्त है / नित्य पाठ करनेवालों के लिये छन्द भी गायन-परिपाटी के अनुकूल लिया है / पूज्य आचार्यश्री ने इसकी रचना की है और साथ ही इसका गुजराती में पद्यात्मक तथा गद्यात्मक अनुवाद भी कर दिया है / संस्कृत भाषा का असीम प्रवाह हमारे जैन-पूर्वांचार्यों ने समस्त जैन-वाड्मय में बहाया है / उसी पूर्व-परम्परा को इन रचनाओं के द्वारा यथावत् आगे बढ़ाते हुए परम उपकारी गुरुवर श्रीविजयधर्मधुरन्धर सूरीश्वरजी ने अपने जीवन में एकरसता प्रदान की, यह उनकी साहित्य-सम्पदा से प्रमाणित होता है। श्रद्धय पं. श्रीधर्मध्वजविजयजी गणिवर्य अपनी गुरुभक्ति का अभिनव आदर्श प्रस्तुत करते हुए उनकी बहुमूल्य किन्तु अब तक अप्रकाशित-कृतियों को प्रकाश में P.P.AC. GunratnasuriM.S. Jun Gun Aaradhak Trust