________________ लोकोत्तर गुगों के आत्मिक प्रकाश से प्रकाशमान बनानेवाला आत्मतत्त्व 'अरिहंत' माना जाता है, और अनन्त आत्मगुणों के घनीभूत स्वरूप जैसे आठ गुणों द्वारा विकसित होते हुए संसारातीत आत्मतत्त्व को 'सिद्धपरमेष्ठी' के रूप में पहचाना जाता है। तथा इन पाँचों परमेष्ठियों के २७,२५,३६,१२,८-गुणों की जोड़ होगी 108 / यह 108 का अंक अखण्ड अंक तो है ही, परन्तु और भी अन्य अनेक रूप से दृष्टि से जैन अथवा अजैन दर्शनों में इस अंक का बहुत महत्त्व है / मूल बात यह है कि पाँच परमेष्ठियों के 108 गुण हैं उनमें से एक-एक गुण पर एक-एक श्लोक बनाकर कुल 108 श्लोकों की रचना 'पन्चपरमेष्ठी-गुणमाला' नाम की रचना है / इस रचना की टीका तो कर्ता ने बनाई ही है, साथही-साथ बालजीवों की सुगमता के लिये उन्होंने स्वयं ही उन 108 पद्यों का सरल अनुवाद भी गुजराती भाषा में दे दिया है। दूसरी कृति 24 तीर्थंकरों की स्तवनारूप रचना है। केवल 28 पद्यों में निर्मित इस लघु रचना की विशेषता, इसके प्रत्येक पद्य में, और बहुधा तो प्रत्येक वाक्य में किये गये पौन:पुन्यदर्शक (यङ लुबन्त और यङन्त) प्रयोगों में है। ऐसे प्रयोगों से काव्यरचना कुछ क्लिष्ट हो जाती है, इसका ज्ञान ऐसे पण्डितजनों को होता ही है, और इसी लिये उन्होंने ऐसे विशिष्ट प्रयोग होने पर भी ये पद्य क्लिष्ट न हों अथवा माधुर्य, सर्वथा नहीं खो बैठें, इसका पूरा ध्यान रखा है / यह उनकी एक लाक्षणिकता है / यह 'जिन-स्तुति' सामान्य संस्कृतभाषा के ज्ञानवाले पाठक, भी समझकर भक्ति का लाभ प्राप्त कर सकें, इसके लिये प्रत्येक पद्य का 'अन्वय' तथा विस्तृत 'वृत्ति' भी इसके साथ मुद्रित की गई है / 'हैमव्याकरण' के अनुसार प्रयोगों की रूपसिद्धि को भी वृत्ति में स्पष्ट किया है। 28 शिखरिणी छन्दों में यह कृति पूर्ण हुई है। तीसरी रचना है-'वर्णक्रम-सूक्ति-पंचाशिका'। यह बहुत ही रसप्रद और विस्मयप्रेरक कृति है। मुझे व्यक्तिगत रूप से तो इसमें बहुतही आनन्द मिला है। - इस प्रकार की रचनाएँ कब से प्रारम्भ हई ? इसका मैं अन्वेषण करने गया, तो इस प्रकार की रचना का प्रारम्भ छठी शती से तो निश्चित रूप से चालू हो गया था, ऐसे उदाहरणों की स्थिति ज्ञात हो P.P.AC. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust