________________ गई। इससे पूर्व भी यह प्रकार प्रयोग में आया हो, तो वह असम्भव नहीं है, ऐसा भी ज्ञात हुआ। यह तो संस्कृत को बात हुई। तदनन्तर उत्तरकाल में प्राकृत-अपम्रश, गुर्जर आदि भाषाप्रकारों में रचित साहित्य में प्रकाशित भी हुई हैं / इस प्रकार की रचनाएँ मातृका क-कक 'अक्खरावट' आदि नामों से मध्यकालीन साहित्य में प्रसिद्ध हैं। ऐसी रचनाओं में बारहखड़ी के बावन अक्षरों को लेकर जो जो पद उन अक्षरों से आरम्भ होते हों, ऐसे उपदेशात्मक अथवा चरित्रात्मक दोहे, चौपाई आदि के निर्माण में जैन कवि भो बहुत निपुण थे। कभी ‘क-का-कि-कीकु-क-के-कै-को-को-कं-कः' इस प्रकार प्रत्येक अक्षर की बारहखड़ी के बारह-बारह दोहे वाली दीर्घरचनाएँ भी निर्मित होती। इस पुरातन और मध्यकालीन रचना-परम्परा के साथ अर्वाचीन युग का अंक जोड़ सके वैसी अथवा इस परम्परा में अपने समय की प्रतिनिधि रचना के रूप में खड़ी रह सके, वैसी एक सशक्त संस्कृत रचना इस संग्रहग्रन्थ में आचार्य श्री की ओर से हमें प्राप्त हुई है, यह गौरवास्पद घटना है / और इसमें भी अधिक आनन्द की बात यह है कि गूजराती के प्रख्यात कवि श्री बादरायण ने इस रचना के पद्यों का समश्लोकी तथा कक्का के उसी क्रम का निर्वाह करने वाले सरस अनुवाद की रचना करके गूजराती पद्यात्मक साहित्य को एक सुन्दर सर्जन दिया है। चौथी रचना में 'गौतम-चरित्र' है यह पूरा चरित्र बहत सारपूर्ण ढंग से प्रस्तुत है। इसके पद्य और गद्यात्मक अनुवाद भी यहां हैं। ऐसी उत्तम कृतियाँ देने के लिये इनके कर्ता आचार्य श्री को तो हम वन्दन करते ही हैं, साथ ही उनके शिष्यरत्न पंन्यास श्री धर्मध्वजविजयजी गणी को ये सभी रचनाएँ विद्वज्जगत् तक पहुंचाने के लिये पुनः पुनः अभिनन्दन भी देते हैं, और आचार्य श्री की शेष रही हुई समस्त कृतियों का शीघ्रतापूर्वक प्रकाशन करके अपना शिष्यधर्म सम्पादित करें, ऐसा साग्रह अनुरोध भी करते हैं। जैन उपाश्रय नया विकासगृह मार्ग पालड़ी, अहमदाबाद-७ शीलचन्द्र विजय दिनांक 7-5-94 P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust