________________ // नमो नमः श्रीगुरुनेमि-सूरये // सु-स्वागतम् 'विद्वन्मर्धन्य' और 'महामनीषी' जैसे विशेषण जिनके लिये समुचितरूप से प्रयुक्त किये जासकें, ऐसे परमपूज्य आचार्यप्रवर श्रीविजयधर्मधुरन्धरसूरीश्वरजी महाराज की कतिपय महत्त्वपूर्ण तथा प्रगल्भ रचनाओं का स्वागत करते हुए हृदय हर्षित होता है। उनकी रचनाएं बहुत अधिक हैं और उनमें भी प्रत्येक रचना में कुछ न कुछ ऐसा वैशिष्ट्य अथवा वैलक्षण्य है कि जिसके कारण उनकी रचनाओं का मुझे तो सतत तीव्र आकर्षण रहता है, और इसी लिये, उनकी रचनाएं जितनी बन सके उतनी ही शीघ्रता से प्रकाशित हों, ऐसा आग्रह, मैं, उनके शिष्यरत्नों से करता ही रहा हूं। और आनन्द की बात यह है कि पं० श्रीधर्मध्वजविजयजी गणीने, मुझ जैसे अन्यान्य अभिलाषियों के आशावाद को प्रोत्साहन मिले उस प्रकार उनकी रचनाओं के संग्रह धीरे-धीरे प्रकाशित करना प्रारम्भ किया है, यह एक अभिनन्दनीय बात है। प्रस्तुत ग्रन्थ में-पंचपरमेष्ठि-गुणमाला-सवृत्ति, चतुविशतिजिनस्तुति-सटीक, वर्णक्रम-सूक्तिपंचाशिका-समश्लोक गूर्जरानुवादयुत तथा श्रीगोतमस्वामिचरित्र सविवरण-इस प्रकार चार लघु किन्तु प्रसादमधुर रचनाओं का संग्रह हुआ है। जैन-दर्शन के प्राण 'पंचपरमेष्ठि-पद' हैं। अरिहंत, सिद्ध, सूरि, उपाध्याय तथा मुनि-इन पाँच परमेष्ठियों में जैनसम्मत देव-गुरु तत्त्व का समावेश होता है, और इससे 'इनकी आराधना ही धर्मतत्त्व है' ऐसा मानने में कोई औचित्यभंग नहीं माना जाता। ये पांच परमेष्ठी कोई व्यक्तिविशेष-परक पदार्थ नहीं हैं, किन्तु किसी भी आत्मा में विकसित होते हुए विशिष्ट गुण-धर्मों के आधार पर उसे उस-उस परमेष्ठी पद पर आरूढ आत्मा मानकर उसकी उपासना करनी होती है। इसमें अनानुपूर्वीक्रम से देखें तो 27 विशिष्ट गुणों को प्राप्त करे वह 'मुनि' पद प्राप्त कर सकता है, 25 विशिष्ट गुणों का विकास साधे वह 'उपाध्याय' बन सकता है, 36 गुणों का धारक हो, तो वह 'आचार्य' पदारूढ हो सकता है, 12 P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust