________________ 1. मी सागर र सन * महार र सानासाना , * प्रस्तावनागर घिर-382002 अनंतानंत परम तारक देवाधिदेव श्री तीर्थंकर परमात्माने समवसरण की अनुत्तर धर्म-समा में देव, दानव एवं मानव युक्त परिषद . पर्षदा. में चार प्रकार के अनुयोग से सम्यक् गुंफित एवं योजन भूमि प्रसरित धर्म-वाणी सुना कर मोक्ष-मार्ग को प्रकाशित कर वचनातीत उपकार किया है / यदि ऐसा कहे तो अंश मात्र भी अतिशयोक्ति नहीं होगी कि द्रव्यानुयोग, चरणकरणानुयोग, गणितानुयोग एवं धर्मकथनानुयोग से सम्यक् गुंफित एवं स्वयंभूरमण- समुद्र सम गहन श्रुत ज्ञान के माध्यम से बाल-अज्ञानी जीवों पर धर्मकथानुयोग द्वारा सविशेष सुगम उपकार कर सकते हैं / वास्तव में देखा जाय तो धर्मकथानुयोग सहज सुगम सुवोधकारक होने की वजह से आबाल-वृद्ध आदि सभी असाधारण उत्कंठा सह उसमें एकरूप हो जाते हैं / साथ ही उसमें वीर-रस, करूणा-रस शांतरसादि सभी प्रकार के रसों का सुंदर सुविस्तृत, भावात्मक, हृदय स्पर्शी विवेचन होने के कारण निस्संदेह व सर्व सामान्य समाज के लिए प्रायः उपयोगी सिद्ध होता है / सर्वजन हिताय-सर्वजन कल्याणकारी ऐसे उक्त धर्मकथाओं का यदि श्रद्धा मान से श्रवण किया जाय तो हिंसा, असत्य, चोरी आदि शास्त्रोक्त अठारह असद् पापात्मक आचरणों के फल स्वरूप अनंतानंत दुखप्रद क्लेशकारक अशुभ परिणाम तथा अहिंसा, सत्य, अचौर्य आदि शास्त्रोक्त अनेक सदाचरणों के रूप एकांतिक आत्म हितकारी व कल्याणकारी परिणामों की झाँकी होती है। असत् तत्त्व एवं सत् तत्त्वों के प्रति सम्यक् श्रद्धा प्रकट होती है तब आत्म-पंछी असत् तत्त्वों के जाल जंजाल से मुक्त होने की तीव्र भावना रखता है / और सत्-असत् तत्त्वों की प्राप्ति हेतु भव्यात्माओं की आंतर भावना सविशेष उत्कंठित बनती है। आंतर भावना जब पूर्ण स्वरूप में विकस्वर होती है तब जीव एव शिवपद प्राप्ति का कामी बनता है / मुक्ति-पद का इच्छुकी भव्यात्मा जीव तत्त्व व अजीव तत्त्वादि के सम्यक -ज्ञानकी प्राप्ति द्वारा जीव मात्र पर अनंतानंत उपकार करने में समर्थ बनता है और अन्य असंख्य जीवों को भी सम्यक्-ज्ञान प्रदान कर अनंतानंत . उपकार करने हेतु समर्थित करता है / इस प्रकार उपकार रूपी लता की जड... उगमस्थान जो कोई भी हो, आखिर है तो परम तारक देवाधिदेव श्री तीर्थंकर भगवान ही हैं / P.P. Ac. Gunratnasuri DORONanak must