________________ 272 भीमसेन चरित्र अर्थ और काम ठीक वैसे ही द्रव्य और राज्य के जाल में फँस कर अपने धर्म को ताक पर न रख देना। जैसे ही तुम धर्म को विस्मरण कर जाओगे, तुम समस्त ऐश्वर्य एवं अतुल धनसंपदा से हाथ धो बैठोगे। न्याय-सिंहासन पर आरूढ हो, दीन-दुःखी और निर्दोष प्राणियों को दंडित न करना। अपराधी को भी उचित दंड देना और भूल कर भी कभी मृत्यु-दंड का नाम न लेना। क्योंकि यदि हम किसी को जीवन प्रदान नहीं कर सकते तो उसे छिनने का हमें क्या अधिकार है? हमारा कर्तव्य अपराधों को जड मूल से काटना है, ना कि अपराधियों को मृत्यु-दान देने का। तुम्हारे द्वार पर संत, ज्ञानी, गुरु भगवंत अथवा भिक्षुक का आगमन हो तो उनका विनय करना, भक्ति करना और उनकी धर्मवाणी का अवश्य श्रवण करना। सुपात्र-दान देना। दीन-दुःखियों को खाली हाथ न भेजना, जब कभी राज्यचर्चा करने निकलो तो भूखों को भोजन, प्यासे को शीतल जल और अपाहिज-अपंगों को गधार देना न भूलना। अपनी परम्परा और गौरव को कभी खंडित मत करना। पूर्वभव के पुण्य प्रताप से ही तुम्हें राज्य-प्राप्ति हुयी है। अतः पुण्य-धर्म में चित वृद्धि करना न भूलना। ठीक वैसे ही यौवनोन्माद में अंधे बन, उक्त पुण्य का पय न करना। हे पुत्र! इससे अधिक कहना उचित नहीं है। क्योंकि तुम स्वयं सुज्ञ हो, समझदार हो और हो मेधावी प्रतिभा के स्वामी। साथ ही हे राजन! तुम, तुम्हारे कुल और परम्परा ठीक वैसे ही आत्मा को अधिकाधिक उज्जवल एवम् ज्योतिर्मय करे, इस तरह से राजधुरा का वहन करना।" पिताश्री भीमसेन द्वारा प्रदत्त अमोघ शिक्षा को शिरोधार्य करते हुए देवसेन ने नतमस्तक विनीत स्वर में कहा : "तात! आप निश्चिंत रहिए। आपकी आज्ञा का मैं अक्षरशः पालन करूंगा।" तत्पश्चात् दूसरे दिन महाराज देवसेन ने दीक्षार्थी भीमसेन तथा सुशीला की भव्य शोभा-यात्रा निकाली। दीक्षा-महोत्सव का आयोजन किया। शुभ मुहूर्त में मुमुक्षु आत्माएँ आचार्य भगवंत की सेवा में उपस्थित हुयी। श्रद्धये गुरुदेव ने सभी को विधिपूर्वक दीक्षा प्रदान की। उपस्थित समुदाय के जयनिनाद से ब्रह्माण्ड गूंज उठा। सबने मिलकर नूतन मुनिवर एवं साधुओं को सामुदायिक वंदन किया और असार-संसार की चर्चा करते हुए सभी स्व-स्थान लौट गये। देवसेन और केतुसेन ने श्रावकोपयोगी बारह व्रत ग्रहण कर दीक्षित माता-पिता की सादर वंदना की और राजमहल की ओर प्रयाण किया। P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust