________________ आचार्यदेव हरिषेणसूरजी 265 तपस्वी को एक नजर देख, कामजित् क्रोधाग्नि से सुलग उठा। ऐसा भिक्षुक भला मेरे भव्य राजप्रासाद में किस तरह प्रवेश कर गया? फलतः उसके निकट जा कर उसने उसका उपहास किया... जी भर कर कटु वचनों का प्रयोग किया और तिरस्कार के मारे धक्के देकर महल से बाहर निकाल दिया। ___ एक बार जंगल में टहलते हुए उसने एक आश्रम देखा। आश्रम में एक मुनि वास करते थे। उसने मन ही मन मुनिश्री को उत्पीडित करने का निश्चय कर दबे पाँव आश्रम में प्रवेश किया। उस समय मुनिराज एक जल-पात्र भर रहे थे। जल-पात्र भर कर किसी कार्यवश वह इधर-उधर हो गये। इस अवसर का लाभ उठा कर कामजित् ने जल-पात्र को कहीं छिपा दिया। मुनिराज जब आश्रम में लौटे तो उन्हें जल-पात्र कहीं दृष्टिगोचर नहीं हुआ। वह गहरे विचार में खो गये। उन्होंने जल-पात्र को खोज निकालने की दृष्टि से आश्रम का चप्पा-चप्पा छान मारा। किन्तु जल-पात्र कहीं नहीं मिला। . मारे तृष्णा के उनका कंठ सूखने लगा। अंग-प्रत्यंग में दाह प्रकट हो गया। जल-पात्र के खो जाने से वे आकूल-व्याकूल हो गये। मुनि की दयनीय दशा निहार कामजित को उन पर दया आ गयी। फलतः उस उन्हें जल-पात्र लौटा दिया और धर्म-वाणी सुनने के लिए उत्कंठित हो गया। मुनिराज ने उसे दया-धर्म समझाया। मुनिश्री की ज्ञानगम्य वाणी श्रवण कर उसकी आत्मा जग पडी। फलतः उसने भविष्य में ऐसे अघटित कृत्य न करने की प्रतिज्ञा की। .. जब वह नगर की ओर लौट रहा था, तब मार्ग में उसने एक मृग देखा। मृग के पाँव में बेल लिपटी हुयी थी। अतः वह ठीक से चल नहीं सकता था और बडी कठिनाई से छलांग भरता था। कामजित् ने लपक कर उसे दोनों हाथों में उठा लिया और दयार्द्र हो, पाँव में लिपटी बेल काट ली। बंधन शिथिल होते ही मृक कुलाँचें मारता आँखों से ओझल हो गया। प्रस्तुत घटना से प्रसन्न हो, कामजित् भी राजमहल में लौट आया। दूसरे दिन वह पुनः सपरिवार आश्रम में गया। मुनिराज को भक्तिभाव से वंदन किया और उनकी अमृत-वाणी श्रवण की। इस तरह मुनि-पुंगव की वाणी से प्रेरित हो, कामजित एवम् प्रीतिमति नियमित रूप से धर्माराधना करने में खो गये। उन्होंने उत्कट भाव से ज्ञान, दर्शन एवम् चारित्र की साधना की। आराधना करते समय उन्होंने जरा भी स्खलना नहीं होने दी। बल्कि अप्रमत्तभाव से आत्म-धर्म का सेवन किया। P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust