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________________ आचार्यदेव हरिषेणसूरजी 257 दोनों बंधुओं में अपूर्व सख्य था। यों कहें तो अतिशयोक्ति नहीं होगी कि, दोनों दो शरीर एक प्राण थे। दोनों के विचार और आदर्शों में अद्भुत साम्य था। जीवन विषयक दृष्टिकोण समान था। साथ ही दोनों एक दूसरे से अटूट स्नेह-सूत्र से बंधे हुए थे और एक दूसरे की पर्याप्त मान-मर्यादा रखते थे। कभी-कभार आपस में मतभेद उत्पन्न हो भी जाते थे तो, उसे परस्पर प्रेम और शांति से निपटाते थे। किन्तु दोनों की पलीयों के स्वभाव-गुण परस्पर विरोधी थे। उनमें जमीन-आसमान का अंतर था। उन्होंने परस्पर समरस होने का कभी प्रयत्न नहीं किया। जिठानी को अपने विपुल धन का आवश्यकता से अधिक अभिमान था। किन्तु वह इतनी व्यवहारकुशल एवम् बुद्धिमान थी कि, उसे कभी प्रकट होने नहीं देती थी। अतः प्रथम दृष्टि में वह विनम्र और स्नेही प्रतीत होती थी। किसी समय देवदत्ता ने विद्युन्मति को सुन्दर और कलात्मक अलंकारों से विभूषित दखा तो स्त्री सुलभ इर्ष्या से वह जल उठी। देवदत्ता और कोई नहीं, बल्कि प्रीतिमति की विश्वासपात्र सेविका थी। और प्रीतिमति कामजित् की प्राणवल्लभा... ठीक वैसे ही वाराणसी की महारानी थी। _ विद्युन्मति के पास ढेर सारे आभूषण देख, देवदत्ता की आँखें विस्मय से फटी की फटी रह गयीं। वास्तव में अलंकार अत्यंत मूल्यवान और नक्काशीदार थे। अनुपम नक्शीकाम से युक्त बहुमूल्य आभूषणों ने उसके मन में दास के भाव पैदा कर दिये। वह मन ही मन लघुता अनुभव करने लगी। ___'अरे, ऐसे सुन्दर और बहुमूल्य आभूषण तो प्रीतिमति के आकर्षक अंग-प्रत्यंगों को ही शोभा देते हैं? जिठानी जैसी जिठानी और वारणशी की नारी महारानी प्रीतिमति... और उसके आभूषण सादे और कनिष्ठ रानी युवराज्ञी के आभूषण इतने भव्य, मँहगे और देदीप्यमान!' ___दासी के मन-मस्तिष्क में परश्रीकातर्य (डाह) के विषाणु कुलबुला उठे। वह शीघ्र. ही प्रीतिमति की सेवा में उपस्थित हई। उसने महारानी को वंदन कर उलाहना देते हुए गंभीर स्वर में कहा : “महादेवी! आपने अपनी देवरानी का रत्नहार कभी देखा है? उफ्, क्या उसकी चमक-दमक है? एक-एक हीरे में छोटी रानी के मुखकमल का प्रतिबिंब झलकता है। और क्या ही उनके रलकंकण है? वैसे ही बाजूबंद की तो बात ही निराली है। और पायल की झंकार से तो मानों दिव्य संगीत की सरोद ध्वनित होती है! __ सचमुच, मैं भी कैसी पगली हूँ! छोटे मुँह बडी बात मुझ जैसी सेविका को शोभा नहीं देती। किन्तु कहे बिना रहा भी नहीं जाता। सच रानीमाँ, ऐसे अलंकार तो आप को __ ही शोभा देते है?" P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
SR No.036420
Book TitleBhimsen Charitra Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitsagarsuri
PublisherArunoday Foundation
Publication Year1993
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size241 MB
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