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________________ आचार्यदेव हरिषेणसूरजी 253 _ लगातार तीन दिन तक कठोर साधना के उपरांत देवी कालिका ने रात्रि में राजा की अग्नि परीक्षा लेना आरम्भ किया। विकराल सिंह-गर्जना से आस-पास का परिसर प्रकम्पित हो उठा। विषधर सौ की हृदय-विदीर्ण करनेवाली फुत्कारों से सर्वत्र भय का संचार हो गया। शरीर का अणु-अणु दग्ध हो जाए ऐसी अग्नि वर्षा की। अंग-प्रत्यंग को आर-पार बिंध दे ऐसे कीटाणुओं की राजा के शरीर पर वृष्टि की। किन्तु राजा अपनी साधना से विचलित नहीं हुआ। वह हिमालय सा अचल बन, देवी की आराधना में लीन-तल्लीन रहा। वह एकाग्र चित्त हो, मंत्र-जाप करता रहा। प्रतिकूल उपद्रवों से राजा को कतई चलित होते न देख, देवी ने अनुकूल उपद्रव करने प्रारम्भ किये। उसने स्वयं ही सर्वांग सुन्दर एवम् देदीप्यमान मोहक स्वरूप प्रकट कर मृदु स्वर में कहा : _ “राजन्! मैं तुम्हारी साधना से प्रसन्न हूँ। जो चाहिए सो वरदान की माँग कर!" "माते! मेरी माँग से आप कहाँ अज्ञात है? यदि आप मेरी आराधना से प्रसन्न है तो मेरी अभिलाषा पूर्ण कीजिए। मैं तो आपका ही कृपाकांक्षी हूँ।" ___ "इच्छित फल अवश्य प्राप्त होगा। किन्तु उसके पूर्व तुम्हें मेरी इच्छा के अधीन होना होगा।" "आपकी उचित इच्छा का मैं अवश्य पालन करूगा। कहिए, सेवक उपस्थित है।" / "तो आओ, मेरे पास आओ और मेरा उपभोग करो।" "देवि! यह मेरे से कदापि नहीं होगा। मैं एक पली व्रतधारी हूँ। साथ ही परनारी मेरे लिए मात-तल्य है। तिस पर आप तो साक्षात देवता है... जगत-जननि! मेरे लिए परम वंदनीय और श्रद्धा-भक्ति की अधिकारिनी। अतः यह अघटित कार्य मुझ से नहीं होगा, ना ही ऐसी अनुचित इच्छा प्रदर्शित कर मुझे पाप के गहरे गर्त में धकेलिए।" राजा का दृढ स्वर गूंज उठा। किन्तु देवी उससे हार माननेवाली नहीं थी। वह उसकी खरी कसौटी करना चाहती थी। अतः राजा को अपनी आराधना से चलायमान करने के लिए उसने विविध प्रयल किये। नाना प्रकार की कामोत्तेजक विलास-चेष्टाओं के शर-संधान किये। किन्तु सिंहगुप्त अंत तक सिंह ही बना रहा। वह कतई विचलित अथवा अस्थिर नहीं हुआ, बल्कि आँखे मूंद कर एकाग्र-चित्त सतत मंत्र जाप करता रहा। . . राजा को किसी भी प्रकार से विचलित होता न देख, देवी को दृढ विश्वास हो गया कि, वास्तव में राजा प्रतिज्ञापालक तो है ही, अपितु उग्र साधक भी है। फलतः उसने अपना मायावी-जाल समेट लिया और उसने साक्षात् जगदम्बा के रूप में दर्शन दिये। P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
SR No.036420
Book TitleBhimsen Charitra Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitsagarsuri
PublisherArunoday Foundation
Publication Year1993
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size241 MB
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