________________ आचार्यदेव हरिषेणसूरजी 245 बावडी से कुछ दूरी पर एक सुन्दर जिनालय था। उसका उन्नत शिखर आकाश के साथ अठखेलियाँ कर रहा था। उसकी पताका खुले गगन में मस्ती से लहरा रही थी। सहसा उस ओर दृष्टि जाते ही राजा के कंठ से श्रद्धा-स्वर फूट पडे : 'नमो जिणाणं।' अचानक राजा का स्वर सुन, मंत्रीने लगभग चौंकते हुए पूछा : “महाराज! मन ही मन पंच परमेष्ठि का स्मरण कर रहे है क्या?" ___"मंत्रीवर्य! प्रभु का स्मरण तो आठों प्रहर चालु ही है। किन्तु यहाँ से थोडी ही दूरी पर रहे जिनालय के शिखर का अचानक दर्शन कर मन ही मन प्रभु-वंदन कर लिया।" प्रत्युत्तर में गंभीर स्वर में सिंहगुप्त ने कहा। मंत्री ने शीघ्र ही उस ओर दृष्टिपात किया तो, उसे वृक्षों के झुरमुट से घिरा एक सुन्दर जिन चैत्य दृष्टिगोचर हुआ। चैत्य के शिखर पर रहा सुवर्ण-कलश सहस्त्ररश्मि के प्रखर तेज से दमक रहा था। "तब तो प्रभु! मन ही मन वंदना करने के बजाय क्यों न वहाँ जा कर साक्षात् परमात्मा के ही दर्शन कर लें?" मंत्री ने सोत्साह कहा। राजा की आंतरिक इच्छा तो यही थी, तिस पर मंत्री ने उसे उत्साहित कर दिया। क्षणार्ध में ही दोनो पृथ्वी पर स्थित मोक्ष-भवन में पहुँच गये। ग सिंहगुप्त राजा और मंत्री दोनों मुनीश्वर के सामने हाथ जोडकर बैठे हुए है और मुनिराज उदोघन कर रहे हैं। P.P. Ac. Gunratnasuri M.S.: Jun Gun Aaradhak Trust