________________ 243 आचार्यदेव हरिषेणसूरजी . उसकी राजसभा में विद्यासागर नामक एक मंत्री था। वह अत्यधिक बुद्धिमान् हो, राजा सिंहगुप्त का खास प्रेमपात्र विश्वासी अधिकारी था। नाम के अनुसार वास्तव में वह चौदह विद्याओं का महासागर था। राजा-रानी अपार सुख में प्रायः अठखेलियाँ लेते थे। अतुल ऐश्वर्य एवम् वैभव में क्रीडा करते थे। यौवन की मादकता और उमंग की लहरों पर सदैव डोलते रहते थे और आरोग्य की अनुपम सिद्धि के स्वामी थे। अतः रोग व आधि-व्याधियों से सर्वथा मुक्त रहते थे। आमोद-प्रमोद में अहर्निश रत राजा-रानी हर समय हास्य और विनोद की फुलझरियाँ छोडते रहते थे। किन्तु उनके वैवाहिक जीवन में एक ग्रहण लग गया था। लम्बे लग्न-जीवन के उपरांत भी रानी की कोख सूनी थी और राजमहल बालक के हास्य-रुदन की किलकारियों से सूना था। इसलिए वह प्रायः चिंतातुर रहती थी। और इसी के परिणाम स्वरूप उसका अनुपम सौन्दर्य रूप सूर्य दिन-ब-दिन अस्ताचल की ओर गतिमान था। पली को उदास और चिंतित देखकर एक बार राजा सिंहगुप्त ने उसका कारण. जानना चाहा। प्रत्युत्तर में रानी ने अत्यंत व्यथित हो कहा : “राजन! आपके सान्निध्य में मुझे किसी बात का दुःख नहीं है। किन्तु लगातार एक ही प्रश्न बार-बार हृदय को चुभता रहता है कि, हमारे पश्चात् इस अतुल राज-वैभव UNMIRIM SAMUTTAMADHivineurs Satishthiunnathamuly I AK. KARTURES रिसोना पत्नी को उदास देखकर राजा सिंहगुप्त उसे पूछते हैं। (पूर्वभव का ब्योरा) P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust