________________ 238 भीमसेन चरित्र विश्व में जो कोई जड और चैतन्य रूपी पदार्थ दृष्टिगोचर होते हैं, उन्हें गीतार्थ जनों ने जीवलोक की संज्ञा दी है। उक्त लोक तालवृक्ष के आकार का है। घनवात, तनवात, घनोदधि और तनोदधि आदि पदार्थों से व्याप्त है, साथ ही वह तीनों लोक में फैला हुआ है (विस्तारित है)। इसका आकार वैत्रासन जैसा है। मध्य-भाग कटि में हाथ लगाओ खडे मनुष्य जैसा और ऊपर का अग्रभाग मुरज जैसा है। इसका अस्तित्व अनादिकाल से है, और अनंतकाल तक रहेगा। वह स्वयंसिद्ध है। न कोई इसका सर्जक है ना ही मष्टा। यह कभी नष्ट नहीं होगा। अनश्वर होने के बावजूद भी वह विस्तृत प्रभावशाली है। ठीक वैसे ही जीवादि पदार्थों से परिपूर्ण है। ___यहाँ चित्र-विचित्र योनि में रहे और पूर्वकृत कर्म रूपी पाश से परवश (पराधीन) बने समस्त जीव जन्म-मृत्यु से सम्बन्धित तमाम दुःखों को सतत भुगतते हैं। यह उत्पत्ति और विनाश से विहीन है। विनाशात्मक पदार्थों से भरा पूरा है। अनादिकाल से सिद्ध है और वायुचक्र के मध्य भाग में स्वयंमेव स्थित है। ठीक वैसे ही निराधार होकर अंतरिक्ष में अवस्थित है। दुरंत दुःख रूपी शत्रु से उत्पीडित एवम् प्रति पल मच्छित ठीक वैसे ही अधिकाधिक कष्टों से घिरा हुआ यह जीव नरक की असह्य वेदना तथा यातनाओं से मुक्त होने में शक्तिमान नहीं है। नरक से निकलने के उपरांत यह जीव पृथ्वी आदि एकेन्द्रियादि (स्थावरपन) में जाता है और किसी अशुभ कर्मोदय के फलस्वरूप वहाँ से नितांत दुःसह ऐसी अवस्था को प्राप्त होता है। यहाँ से निकला पर्याप्त संज्ञी जीव पुण्योदय के कारण कदाचित प्रशस्त शरीर अवयवादि से परिपूर्ण ऐसे तिर्यंच पंचेद्रियावस्था को प्राप्त होता है। और यहाँ से निकल कर मानव-योनि प्राप्त करने के उपरांत भी पाँचों इंद्रियों से युक्त, सूक्ष्म बुद्धि, प्रशांतता, संपूर्ण निरोगीत्व और उदार भावना आदि प्राप्त करता हुआ निहायत काकतालीय-न्याय सदृश ही माना जाएगा। संयोगवश तत्पश्चात् पुण्य योग के कारण विषयाभिलाषा रहित विशुद्ध भाव से युक्त ऐसा मन हो जाय। किंतु उसके लिए तत्त्व के प्रति श्रद्धा उत्पन्न होना अत्यंत दुर्लभ बात है। दर्लभ से दुर्लभ ऐसा यह सब प्राप्त करने के उपरांत भी कभी-कभार किसी अर्थ में आसक्त एवम् कामाभिलाषी मानव प्रमाद वश स्वहित से भ्रष्ट हो जाता है। जबकि कईं मुमुक्षु आत्माएँ सम्यक् रत्नत्रयी स्वरूप मोक्षमार्ग को प्राप्त करने के बाद भी प्रचंड मिथ्यात्व रूपी हलाहल विष का पान कर त्याग करती हैं। ठीक इसी प्रकार कईं मूर्ख जीव पाखंडी-पापाचारियों के कूटोपदेश के वशीभूत हो, स्वयं ही सर्वनाश के शिकार बनते हैं। कितने ही स्वयं उन्मार्ग का अवलम्बन करने के P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust