________________ 220 भीमसेन चरित्र वह तो अपने दैनंदिने रंग राग में आकंठ डूब गयी थी। इधर ललितांग कूप में से बाहर निकलने में पूर्ण रूप से असमर्थ था। निकलने का कोई द्वार उसे दृष्टिगोचर नहीं हो रहा था। तथा अन्दर रहना उसके लिये असहनीय हो रहा था। ललितांग वेदना से चित्कार उठा। वह इस नारकीय यातना से जीवित होने के उपरांत भी संज्ञा-शून्य हो गया था। कुछ समय व्यतीत हो जाने पर किसी ने शौचकूप का मार्ग खोला। ललितांग विष्ठा से पूरा सन गया था। पानी के जोरदार बहाव के कारण वह बाहर निकल आया। उसका भाग्य प्रबल था कि उसी समय उसकी धात्री अचानक उधर से गुजरी। सहसा उसकी दृष्टि ललितांग पर पडी। पल दो पल के लिये वह सन्न रह गयी। उसने प्रेमपूर्वक उसे स्वच्छ किया। साफ सुन्दर वस्त्र पहनाये और अपने घर भेज दिया। ललितांग को ऐसा कटु अनुभव हो गया था, कि वह सदैव के लिये ऐसा दुष्कर्म करना भूल गया और तत्पश्चात् एकाग्र हो धर्म-कर्म में चित्त लगाने लगा। चिरकाल पश्चात् पुनः एक बार अश्वारुढ होकर रानी के महल की ओर से गुजर रहा था। तभी रानी ने उसे अन्तःपुर में आने का संकेत किया। दासी दौडती रानी का संदेश लेकर पहुंची। परन्तु ललितांग पुनः उसके रूप जाल में फंसना नहीं चाहता था। सके मोहपाश में फस कर नर्क की यातना भोगना नहीं चाहता था। अतः उसने महारानी के निमंत्रण को ठुकरा दिया। वह आनेवाले संकटों का पूर्वानुभव लगा चुका था। अब वह किसी भी स्थिति में पुनः पापाचार के कीचड में फंसना नहीं चाहता था। उसके ज्ञानचक्षु खुल चुके थे। ज्ञानी भगवंत इस दृष्टांत के उपनय को समझाते हुये कहते है कि, हे महानुभावों! ललितांग कुमार को तुम जीव समझो, जबकि मानव भव को रानी चन्द्रवती मानो। कई आकर्षण व प्रलोभनों के माध्यम से वह जीव को अपनी ओर आकर्षित करता है। नित्यप्रति जीव को अपने पाश में जकडे रहता है। ठीक उसी प्रकार रानी की दासी को भोगेच्छा जानो। यही इच्छा जीव को व्याकुल विह्वल कर देती है। सदैव पाप में लिप्त करती है। पापाचार करवाती है। फलस्वरूप जीव को नरक के गर्त में गिरना पडता है। राजा को साक्षात् मृत्यु समझिए। प्रायः उससे जीव डरता है और घबरा कर बिना कुछ सोचे समझे वह कहीं भी कूद पडता है। जो विष्टा का खड्डा था उसे गर्भवास मानना चाहिये। जीव जहाँ नौ माह तक उलटे सिर रहता है वीर्य एवम् प्रस्वेदादि से लिप्त रहता है। ललितांग का कूप से बाहर निकलना प्रसव का प्रतीक है। जीव अनेक यातनाओं को सहन कर संसार में अवतीर्ण होता है। धात्री को पुण्य मानो। पुण्योदय के अनन्तर ही ऐसा संयोग मिलता है। सुख व ऐश्वर्य प्राप्त होता है। भव्य आत्माओं! गर्भावस्था का दुःख वास्तव में असह्य व अकथ्य है। शास्त्रकार ज्ञानी भगवंतो का कथन है कि, "कदली के गर्भ सदृश सुकोमल शरीर हो और उस पर ताप से तप्त लाल अंगार जैसी P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust