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________________ वही राह वही चाह 4. श्री सागर ही 338 - महावीर न . . भरा स्वर्णथाल भीमसेन के चरणों में धर दिया। "अरे! यह तो मेरा ही बाजूबन्द है। और यह रत्नहार भी मेरा ही है।" अलंकारों पर एक दृष्टि डालते हुए सुशीला अविलम्ब बोल उठी। संभव है, आपका कथन सत्य है। महारानीजी!" सुभद्र ने सत्य का स्वीकार करते हुए कहा। सुशीला व भीमसेन आभूषणों को हाथ में लेकर देखा परखा और अकस्मात स्मृति हो आई कि, 'ये वे ही आभूषण हैं, जिनकी चोरी इसी जगह से हो गई थी। कर्म का कैसा प्रभाव। जब गया तब समूल नष्ट कर गया था। रो रो कर आँखे उठ गई थी। शरीर को कष्ट और यातनाओं से आधा कर दिया था। लाख प्रयलों के बावजुद भी कुछ हाथ नहीं लगा था। दुःख के बादल छंट गये। असह्य यातनाओं के बादलों से घिरा सूर्य बादलों का अवरण दूर फेंक निकलं आया। कुहरा कम हो गया और भाग्य रूपी भगवान् भास्कर अपनी रजत रश्मियों से पूरे ब्रह्माण्ड को ज्योतिर्मय कर रहे है। अनायास ही सब कुछ पुनः प्राप्त हो रहा है। अलंकार वापस मिले। कपिराज कंथा वापस कर गया। शस्त्र व सुवर्णरस भी प्राप्त हो गया और आज रहे-सहे स्वर्णाभूषण भी प्राप्त हो गये। 'वाह रे कर्मराज! वाह! तेरी लीला भी अनोखी अगम्या है! तुम्हारा न्याय अटल-अचल हैं। न तू अधिक देता है और न ही कम।" भीमसेन चिंतन-सागर में गोते लगाने लगा "परन्तुं ये आभूषण तुम्हारे पास कैसे आये?" देवसेन ने कौतुहल वश पूछा! 'नहीं नहीं नरेश! यह कहते हुए यद्यपि मेरा मस्तक लज्जा से झुक जाता है। परन्तु आपके सम्मुख मैं असत्य नहीं कहूँगा। चोरी व लूट खसोट करना मेरा व्यवसाय है। कई लोग मेरे संरक्षण में चौर्य कर्म करते हैं। अच्छे खासे समय पूर्व एक बार आप एक पर्णकुटी में विश्राम करने के लिये रुव. थे। उस समय मेरे सहयोगियों ने रात्रि के अन्धेरे में आपके आभूषण चुरा लिये थे। परन्तु मैंने इन आभूषणों को देखते ही सुरक्षित स्थान पर रख दिये। दीन-हीन व निर्दोषों को हम भूल कर भी नहीं लूटतें। यह हमारा धर्म नहीं है। फिर हम में से किसी को भी ज्ञात नहीं था कि आप राजगृही नरेश है। धन के लालच में उन्होंने यह काम किया कुछ समय पश्चात् मुझे ज्ञात हुआ कि आपको अचानक राजगृही का परित्याग करना पड़ा। आपका सुराग खोज निकालने का मैंने भरसक प्रयत्न किया स्थान-स्थान पर आपकी खोज की, परन्तु निराशा ही हाथ लगी। मैंने मन ही मन निश्चय कर लिया कि जब कभी अवसर प्राप्त होगा तब आपके आभूषण आपकी सेवा में प्रस्तुत कर दूंगा। परिणाम स्वरूप विगत कई दिनों से मैं प्रतिदिन आपकी प्रतीक्षा कर रहा था समय-समय पर आपके समाचार प्राप्त करने का प्रयल करता रहता था। तभी मुझे विदित हुआ कि आप स्वंय यहाँ पधार रहे है, और रात्रि विश्राम के लिये इसी जंगल में रुकेंगे। मेरे मन को परम शांति प्राप्त हुई। आज आपके आगमन के समाचार प्राप्त होते ही मै आपके पास अविलम्ब दौडा आया हूँ। P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
SR No.036420
Book TitleBhimsen Charitra Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitsagarsuri
PublisherArunoday Foundation
Publication Year1993
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size241 MB
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