________________ 175 महारती सुशीला ___ इधर विजयसेन पुनः राजकार्य में ध्यान देने लगा। उसने भद्रा व लक्ष्मीपति को उनके द्वारा किये गये भीमसेन के प्रति अमानुषिक अत्याचार, ठीक वैसे ही विजनवास दौरान उनके अलंकारों की चोरी करने वाले चोर को कडी शिक्षा देने का निश्चय किया। राज दरबार खचाखच भरा हुआ था। समय होते ही भीमसेन व विजयसेन ने राजसी ठाठ के साथ दरबार में प्रवेश किया। प्रतिहारी ने दोनों के पहुंचने की सूचना दी। नगरजनों ने अपने स्थान पर खड़े होकर जयनाद किया। दोनों ही सिंहासनारूढ हुये। यथा समय राज दरबार का कार्य आरम्भ हुआ। विजयसेन ने भद्रा सेठानी व लक्ष्मीपति को दरबार में उपस्थित करने का आदेश दिया। तदनुसार सैनिकों ने दोनों को राजसभा में उपस्थित किया। लक्ष्मीपतिकी मूछे काटी हुई थी और 'श्रेष्ठि' पद छीन लिया गया था। बंदीगृह में अधिक समय तक बंद रहने के कारण उनके चेहरे का नूर उड गया था। ऐसा लग रहा था जैसे लम्बे समय से बिमार हो। विजयसेन ने पूछा : क्या अपना अपराध स्वीकार करते हो? भीमसेन सुशीला और उनके बालकों को अकारण ही नारकीय यातनाएँ और असहाय कष्ट देने और राजरानी सुशीला पर मिथ्या आक्षेप लगाने के अपराध में तुम्हें बंदी बनाया गया था। "तुमको अपने बचाव में कुछ कहना है?" 'राजन्। हमारा अपराध क्षमा करें। हम अपने निकृष्ट कार्य के लिये लज्जित है।' लक्ष्मीपति ने गिडगिडाते हुए दीन-स्वर में कहा। "नहीं, तुम क्षमायाचना के अधिकारी नहीं हो। तुमने तो मानवता को लज्जित कर दें ऐसा घिनौना कार्य किया है। अपने नगर के नाम को कलंकित किया है। तुमने अपनी आत्मा पर भी दाग लगाया है, तुम भूल ही गये कि, मानव के साथ मानव योग्य व्यवहार करना चाहिये। वास्तव में तुम्हारा अपराध अक्षम्य है। अतः शासन तुम्हें कभी क्षमा नहीं कर सकता। अपितु तुम्हें मृत्यु दण्ड की सजा दी जाती है।" विजयसेन ने गंभीर स्वर में कहा - सेठ-सेठानी मृत्यु के भय से थर थर कांपने लगे। सभा में उपस्थित भीमसेन भी कांप उठा। उसने बीच में ही हस्तक्षेप करते हुए कहा : "विजयसेन! इस संदर्भ में मुझे कुछ कहने का अवसर दोगे?" ___"जरूर, इस सम्बन्ध में आपको मुझसे आज्ञा प्राप्त करने की आवश्यकता ही कहाँ है? जो कुछ कहना है प्रसन्न होकर कहिए।" विजयसेन ने सम्मति प्रदान की। “विजयसेन। मैं जब इस नगर में आया तो परदेशी था। उस समय सेठ ने दयार्द्र हो मुझे आश्रय दिया... और मानवता पूर्ण कार्य किया। इसके पश्चात भी जितनी हो सकी उतनी सुविधा व सुख प्रदान किया। अतः मुझ पर इनके अनन्त उपकार है, हालांकि सेठानी ने अवश्य वह कार्य किया, जो उसे नहीं करना चाहिये था। किंतु उसमें भला ' सेठ का क्या दोष? यह उसके स्वभाव का दोष है। और फिर मृत्यु दंड से उनकी मृत्यु P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust