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________________ 165 भाग्योदय आपके ही नाम का रटन करते हुए महल की ओर पैदल जा रहे हैं। आप भी वहा पधारे। सविस्तार सब हकिकत सुनाते हुए सुलोचनाने कहा। कल्पना न कर सके ऐसी इस घटना को देखकर दिग्मूढ बने नगरशेठ पश्चाताप करने लगे। इतने में तो सुशीलाने उनके चरण स्पर्श कर कहा-शेठजी! आपका उपकार मैं जीवनभर नही भूलूंगी। यदि आपने मुझे सहारा न दिया होता, तो न जाने मेरा और मेरे कुंवरों का क्या हाल होता? वाकई आपकी उदारता धन्यवाद के पात्र है। अब आप मुझे रजा दे, तो मैं मेरी बहन के साथ चलूं। सुशीलाने विनय से कहा। अरे! आप यह क्या कर रही है? वंदन के अधिकारी तो आप है? रानीमां! ऐसा करके हमें शरम में मत डालिये। वैसे भी मैंने आपका अक्षम्य अपराध किया है। "मुझे क्षमा करो रानीमां!" नगरशेठ ने हाथ जोडकर माफी मांगी। ऐसा न बोलो शेठ! अपराध तो हमारा है, जो हमने पूर्व भव में कोई पापाचरण किया होगा जिसका बदला अब चूका रहे है। आपने तो हमारे दुःखों को हल्के किये हैं। और मैं तो आपके यहां रंक बनकर आई थी। रानी के रूप में नही, इसीलिये आपको संताप करने की जरूरत नही हैं। बस आप खुशी से रजामंद करे ताकि मैं बिदाई लूं। सांत्वनाभरे स्वर में सुशीलाने कहा। नगरशेठने भी दोनों राजरानीयों की यथोचित भक्ति की। भेट-सोगाद दिये, और अत्यन्त आदर के साथ दोनों को डोली में बिठाकर बिदा दी। WWW -HUMATimIPI हार नगरशेठने दोनों ही राणीओं के सामने भक्तिवश नजराना पेश किया। P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
SR No.036420
Book TitleBhimsen Charitra Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitsagarsuri
PublisherArunoday Foundation
Publication Year1993
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size241 MB
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