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________________ भाग्योदय 155 इसके उपरान्त वीस नवकारवाली गिननी, सन्ध्या में प्रतिक्रमण देव दर्शन, देव पूजा और देव वंदना। संभव हो वहां गुरुवंदन, व्याख्यान-श्रवण, सामायिक, स्वाध्याय आदि करना भी परम आवश्यक है। प्रस्तुत तप की आराधना करनी चाहिये दया सागर श्री मुनीश्वर महासेन, साधु गुणा श्री कृष्णा साध्वी ठीक वैसे ही शुद्ध चारित्री श्री चन्द्रराजर्षि ने केवल ज्ञान प्राप्त कर मोक्ष पद को सुशोभित किया था। भव्यात्माओं! इसकी आराधना से अनंत भवों के कर्मों का क्षय होता है। इससे यह भव व परभव दोनों ही सुधर जाते है और काल क्रम में सभी कर्मों का नाश हो जाता है। अतः महानुभावों! ऐसे सर्वोत्तम तप की निरन्तर साधना कर महा दुर्लभ मानव जन्म को सार्थक करो। पूज्य आचार्यश्री ने तप पर बल देते हुये व्याख्यान समाप्त किया। भीमसेन दत्तचित होकर आचार्य भगवंत की अमृतवाणी का पान कर रहा था। उनका एक एक शब्द उसके हृदय को पुलकित कर रहे थे। फलतः उसका आनन्द पल पल द्विगुणित हो रहा था। उसके अन्तर में शुभ व शुद्ध भावनायें करवट ले रही थी। आचार्यदेव ने तप की महिमा समझाई फलतः भीमसेन ने मन ही मन दृढ निश्चय कर लिया कि वह भी ऐसे गरिमामय तप की उत्कृष्ट व यथार्थ आराधना करेगा। धर्म सभा के विसर्जन हो जाने पर राजा विजयसेन ने अपने स्थान पर खड़े होकर गुरुदेव से पूछा, "गुरूदेव! मेरे योग्य कोई सेवा हो तो आज्ञा दे।" “राजन! तुम तो प्रजा के पालक हो। पक्षीगण भी तुम्हारी संतान मानी जाती है, उनका रक्षण व संवर्धन करना तुम्हारा प्रथम कर्म और धर्म है। नगर के बीच मंदिर अवश्य करवाना। और जैन शासन की धर्मपताका ब्रह्माण्ड में सदैव लहराती रहे ऐसे सुकृत्य करना।" आपकी आज्ञा ही मेरा धर्म है प्रत्युत्तर में विजयसेनने नतमस्तक हो, विनयपूर्वक कहा। अन्य श्रोताओं ने भी यथाशक्ति नियमों का पालन करने के व्रत लिये। आचार्य भगवंत भी प्रस्थान के लिए तत्पर हो गये। उन्होने अपने हाथ से जंघा का-स्पर्श किया और आकाश मार्ग में तत्क्षण उड़ान भरी। एकत्रित जन समुदाय के कंठ से उद्घोषित धर्मघोषसूरि महाराज के जयनाद से व्योम मण्डल गूंज उठा। भाग्योदय नगरजनों द्वारा लगातार तीन-तीन बार आचार्यश्री का जयनाद करने के उपरांत भी भीमसेन इससे परे था। वह कल्पनालोक की सैर करता विविध विचारों में खो गया था। हालांकि जयघोष उसके कर्ण पटल पर अवश्य टकराया। परंतु उसके होठों में कोई हलचल नहीं हुई। वह एक शब्द का भी उच्चारण नहीं कर सका, बल्कि भाव समाधि में लीन हो गया। P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
SR No.036420
Book TitleBhimsen Charitra Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitsagarsuri
PublisherArunoday Foundation
Publication Year1993
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size241 MB
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