________________ मौत भी न मिली 127 भीमसेन ने तो मृत्यु का आलिंगन कर लिया था। वह किसी के पास मृत्यु की भीख माँगने नहीं गया था, कि उसे मौत दे दे। उसने स्वेच्छया अपने गले में फाँसी का फंदा डाला था। ना कि भयातुर हो बचाओ बचाओं की आवाज की थी। सेठ ने दूर से ही यह सब देखा और उनकी परोपकारी आत्मा छटपटा उठी। फलतः वह दौड़ते हुए उनके पास पहुंचे तथा भीमसेन को इस दुःख से मुक्त कर दिया। सेठने भीमसेन की सेवा-सुश्रुषा की। उसके मुँह पर शीतल जल के छींटे लगाये... हाथ पैर दबाये... उसका माथा हिलाया। अवरूद्ध गले में बूंद बूंद जल डाला और उसे सचेतन किया। यह सारे प्रयत्न भीमसेन के प्राण बचाने हेतु किये। और भीमसेन सेठ के अथक प्रयास से चेतनायुक्त हो गया। उसके प्राण बच गये। किन्तु मन से तो वह कभी का मर चुका था। तथापि शरीरने उसका साथ नहीं छोड़ा। चेतनशील होते ही भीमसेन ने आँखे खोलीं। उसके होठों में कुछ स्पंदन हुआ : “अरिहन्त। अरिहन्त।" सेठ यह सुनकर चौंक पड़े। उनके हृदय में दुःख के साथ आनन्द की अनुभूति हई। सहसा अन्तर्मन बोल उठा : "अरे! यह तो मेरा भाई है। साधर्मिक बन्धु! मैं भी जैन और यह भी जैन लगता है। वर्ना उसके ओष्ठद्वय पर अरिहन्त का नाम क्यों आता? अब तो मेरा कर्तव्य और भी बढ़ गया, मैं अवश्य ही उसकी सहायता करूगा।" मन ही मन यह सोचकर वह पुनः बोला : “भद्र! तुम कौन हो? अकारण ही अपना जीवन समापन करने के लिये भला क्यों तुले हुए हो? यदि मुझे वास्तविक कारण से अवगत कराओ तो मैं तुम्हारी हर प्रकार से सहायता करूगा। मुझे तुम अपना सहोदर ही समझों।" फल स्वरूप भीमसेन ने अब तक की सम्पूर्ण घटना से सेठ को अवगत किया और कहा : "ऐसी स्थिति में, हे महानुभाव! मैं मरू नहीं तो और क्या करू? वास्तव में यह जीवन मेरे लिये इतना भार स्वरूप हो गया था, कि मृत्युवरण करने के अतिरिक्त मेरे सामने अन्य कोई मार्ग ही नहीं रह गया था। पर विधि को शायद मेरा मरना भी मंजूर नहीं था। तभी तो आपने दयाभाव से मुझे जीवन दान दिया। किन्तु अब मैं क्या करूगा? कहाँ जाऊँ? मैं अपने जीवन का निर्वाह किस प्रकार करू?" महानुभाव! माना कि तुम्हारा जीवन निहायत कष्टदायक है। तुमने अनेक दुःखों को भोगा है। संकट का पहाड़ तुम पर टूट पड़ा है तथापि,ऐसी अधीरता भी किस काम की? इससे तो कायरता ही स्पष्ट होती है। परंतु भाई यह मानव जीवन तो दुर्लभ है। पूर्व भव में किये गये कई पुण्यों के प्रताप से तुम्हें यह जीवन मिला है। अतः हर कष्ट को झेलकर उसकी रक्षा करनी चाहिए। तुम्हें तो ज्ञात ही होगा, कि जो पुरूष आत्महत्या करता है, वह नरक गति पाता है। फिर भला ऐसा, दुष्कृत्य करने से क्या लाभ? जब कि तुम तो विज्ञ हो, समझदार हो। तुम्हें यों हिम्मत हार कर अपने जीवन को समाप्त करने का प्रयल नहीं करना P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust