________________ 112 भीमसेन चरित्र छः मास की अवधि पूर्ण होते भला कितना समय लगता? देखते ही देखते समय व्यतीत हो गया। राजा अरिंजय का निर्धारित समय पर पुनः आगमन हुआ। भीमसेन शीघ्र ही उसके पास पहुँचा और नम्रता पूर्वक उससे विनती की : "परम दयालु राजन्! मैं बहुत ही दुःखी पुरूष हूँ। आपकी शरण आया हूँ। मुझ पूर्ण विश्वास है, कि आप मेरी विनती को अवश्य स्वीकार करेंगे और मुझे उचित कार्य प्रदान कर, मेरा दुःख दूर करेंगे। भई! तुम कौन हो? कहाँ से आये हो? सभी बातें मुझे विस्तृत में समझाओ। ताकि तुम्हारे लिये कुछ कर सकू।" भीमसेन ने आदि से अन्त तक अपना पूरा वृतान्त सुनाया। भीमसेन का वृतान्त सुनकर अरिंजय मन ही मन सोचने लगा : 'अरे! यह तो कोई धर्त मनुष्य लगता है। वर्ना हरिषेण के पास क्यों नहीं गया? वह तो इसे काम दे सकता था। किन्तु इसके बजाय यह कई मील चल कर मेरे पास आया है, भला इसका क्या कारण हो सकता है? अवश्य इसके पीछे कोई रहस्य होगा। ऐसे अनजान-अपरिचित व्यक्ति को काम देना कहाँ तक उचित है? इसकी क्या गारन्टी है, कि यह मेरा नुकसान नहीं करेगा? नहीं, नहीं! ऐसे व्यक्ति पर दया करना योग्य नहीं है।" इस तरह कुछ विचार कर अरिंजय ने भीमसेन से कहा : तस्पू --पापा हरि सोमारा तुम्हारे जैसे अनजान को मैं कुछ भी सहायता कर नहीं सकता। तुम्हारी बातें मैंने सून ली, अब तुम यहां से जा सकते हो। राजा अरिंजय ने स्पष्ट मना फरमा दी। P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust