________________ 110 भीमसेन चरित्र दैव ही शुभ व अशुभ फल का दाता है। सहन गायों के झुण्ड में भी बछड़ा अपनी माँ को खोज ही लेता है। ठीक उसी प्रकार किसी भी भव में किया हुआ कर्म अपने कर्ता को खोज निकालता है और उसे शुभाशुभ फल अवश्य प्रदान करता है। समयानुसार फल फूल प्रदान करना वृक्ष का धर्म है। इसके लिये उसे कोई प्रेरित नहीं करता। परंतु काल के क्रम का वह भी उल्लंघन नहीं करता। उसी प्रकार पूर्व कालिक कर्म भी काले क्रम का उल्लंघन नहीं करते। ___फल स्वरूप दुःख में दुःखी नहीं होना चाहिए और सुख की अवस्था में आनन्दित नहीं होना चाहिये। क्योंकि भवितव्यतानुसार शुभाशुभ परिणाम प्रकट होते रहते है। कर्म की गति ही ऐसी है। फिर चाहे साक्षात् ब्रह्मदेव हो या विष्णु भगवान अथवा कोई अनन्य बलशाली देव! जो भाग्य ने लिख दिया है, उसमें हेर फेर करने की शक्ति किसी में नहीं होती। भला विधि का विधान कोई मिटा सकता है। माता-पिता, भाई-बहन, मित्र-बन्धु या और कोई भी साथ हो, परंतु जिसका भाग्य ही रूठ गया हो, उसका साथ कोई नहीं देता। साथ ही यह धारणा भी सरासर गलत है कि मात्र दुःख ही अचानक आते हैं। अरे सुख के दिन भी उसी भाँति अनचिंते-अकस्मात ही आते हैं। फलतः दैव के आगे तो हम सब पामर हो अदने व्यक्ति हैं। भीमसेन भी उसी दैव के आगे एकदम लाचार... हतबल बन गया था। वर्ना वह कितनी आशा और उमंग के साथ प्रतिष्ठान पुर आया था। परंतु जहाँ भाग्य में ठोकरें खाना ही लिखा हो, वहाँ भला क्या हो सकता है? निष्फल यात्रा खिन्न मन और भग्न हृदय भीमसेन प्रतिष्ठान नगर के सिवान में बैठा गहरी चिन्ता में मग्न कहीं खो गया था। अब क्या करू? कहाँ जाऊँ? छः मास का लम्बा काल कैसे व्यतीत किया जाय? तब तक कहाँ रहना? मुझे भला कौन काम देगा? क्या काम देगा? कितना वेतन देगा? इत्यादि विचारों की श्रृंखला में फँसा वह भावी की चिंता में अपना होश खो बैठा। तभी संयोगवश वहाँ से अनाज का एक व्यापारी गुजर रहा था। अचानक उसकी नज़र भीमसेन पर पड़ी। एक परदेशी को इस तरह उदास व क्लान्त, असहज स्थिति में देख, उसका मन करूणा से भर गया। वह दबे पाँव उसके निकट आया और सहृदयता से पूछा : "हे महानुभाव! आप कौन है? और किन विचारों में मग्न है?" "हे भद्र पुरूष! विचार करने के अतिरिक्त मेरे पास है ही क्या? और फिर विचार न करू तो क्या करू? क्योंकि भाग्य के आगे मेरी एक नहीं चलती। वैसे मैं P.P.AC. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust