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________________ 287 परिशिष्टम्-६ // 28|| ततस्तदैव ते प्राप्य भवनिर्वेदकारणम् / कामभोगपरित्यागात् ते प्रव्रज्यां प्रपेदिरे // 29 // ततः सुगतिसन्तानान्निास्यन्त्यचिरादमी। अन्यः पुनरभव्यत्वाद्भवारण्ये भ्रमिष्यति // 30 // इति गाथार्थः // 6/13 // (3) शुभभावस्य बोधिबीजकारणता स्तेनज्ञातेन स एवासावेव परिशुद्धः शुभभाव एव जायते संपद्यते / बीजमिव बीजं कारणं / बोधेः सम्यग्दर्शनस्य / अयं चार्थः कथं समर्थनीय इत्याह-स्तेनज्ञातेन चौरोदाहरणेन / तच्चेदम्इहाभूतां नरौ कौचिदन्योऽन्यं दृढसौहृदौ / युवानौ साहसोपेतौ चौरौस्वबलगवितौ // 1 // भोगलुब्धौ समस्तेच्छापूरकद्रव्यवर्जितौ / तौ च चौर्यं व्यधासिष्टां भोगवाञ्छाविडम्बितौ // 2 // दंडपासिकलोकेन संप्राप्तावन्यदा तकौ / नीयमानौ च तौ तेन वध्यस्थानं तपस्विनौ // 3 // दृष्टवन्तौ मुनीन् मान्यान् मानिमानवसंहतेः / साधूनां सत्क्रियां दृष्ट्वा तयोरेको व्यचिन्तयत् / / 4 / / अहो धन्यतमा एते मुनयो विमलक्रियाः / स्वकीयगुणसन्दोहाज्जगतां पूज्यतां गताः // 5 // वयं पुनरधन्यानामधन्या धनकाङ्क्षया। विदधाना विरुद्धानि वध्यतां प्रापिता जनैः // 6 // धिक्कारोपहतात्मानो यास्यामः कां गतिं मृताः? ही जाता दुःस्वभावेन लोकद्वयविराधकाः // 7 // तदेवं साधु साधूनां वृत्तं वारितकल्मषम् / विपरीतमतोऽस्माकमस्मात् कल्याणकं कुतः? // 8 // अन्यः पुनरुदासीनो भवति स्म मुनीनभि। गुणिरागादवापैको बोधिबीजं न चापरः // 9 // ततस्तनुकषायत्वाद्दानशीलतया च तौ। नरजन्मोचितं कर्म बद्धवन्तावनिन्दितम् // 10 // मृत्वा च तौ समुत्पन्नौ कौशाम्ब्यां पुरि वाणिजौ / जातौ चानिन्दिताचारौ वणिग्धर्मपरायणौ // 11 / / जन्मान्तरीयसंस्कारादाबालत्वात् तयोरभूत् / अत्यन्तमित्रताभावो लोकाश्चर्यविधायकः // 12 // रोचते च यदेकस्य तदन्यस्यापि रोचते / ततो लोके गतौ ख्यातिमेकचित्ताविमाविति // 13|| ततः कुलोचितं कर्म कुर्वतोर्यान्ति वासराः / अन्यदा भुवनानन्दी प्राप्तस्तत्र जिनेश्वरः / / 14 / / भगवान श्रीमहावीर इक्ष्वाकुकुलनन्दनः / वाग्नीरैर्जनसंतापशमनेऽम्भोदसन्निभः // 15 // विदधुस्तस्य गीर्वाणा व्याख्याभूमि मनोहराम् / तत्रासौ धर्माचख्यौ सनरामरपर्षदे // 16 // तमागतं समाकर्ण्य कौशाम्बीवासिनो जनाः / राजादयः समाजग्मुर्वन्दितुं तत्पदाम्बुजम् // 17|| तावपि श्रेष्ठिसत्सूनू कुतूहलपरायणौ / जनेन सार्धमायातौ जिननायकसन्निधौ // 18 // जिनस्तु देशयामास मोक्षमार्ग सनातनम् / सत्त्वानां सर्वकल्याणकारणं करुणापरः // 19 / / ततस्तयोर्वणिक्सून्वोरेकस्य तज्जिनोदितम् / श्रद्धानमार्गमायाति भाव्यते ऽथ स्वमानसे // 20 // स्फाराक्षो मस्तकं धुन्वन् कर्णपर्णपुटार्पितम् / रोमाञ्चितः पिबत्युच्चैर्जिनवाक्यं यथाऽमृतम् // 21 // तदन्यस्य तदाभाति वालुकाकवलोपमम् / अन्योऽन्यस्य च तौ भावं लक्षयामासतुस्तराम् // 22 // व्याख्याभुवः समुत्थाय जग्मतुर्भवनं निजम् / तत्रैको व्याजहारैवं
SR No.035335
Book TitlePanchashak Prakaranam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmratnavijay
PublisherManav Kalyan Sansthan
Publication Year2014
Total Pages355
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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