________________ परिशिष्टम्-१ | 20 उपधानप्रतिष्ठा-पञ्चाशकम् // नमिऊण महावीरं, वोच्छं नवकारमाइ उवहाणे / किंपि पइट्ठाणमहं, विमूढसंमोहमहणत्थं // 20/1 // जं सुत्ते निद्दिटुं, पमाणमिह तं सुओवयाराइ / आयाराईणं जह, जहुत्तमुवहाण निम्महणं // 20/2 // वुत्तं च सुए नवकार-इरिय-पडिकमण-सक्कत्थयविसयं / चेइय-चउवीसत्थय-सुयत्थएसुं च उवहाणं // 20/3 // किं पुण सुत्तं तं इह जत्थ नमोक्कारमाइउवहाणं / उवइटुं ? आह गुरु-महानिसीहक्ख सुयखंधे // 20/4 // एसो वि कह पमाणं, नंदीए हंदि कित्तणाउ त्ति / जं तत्थेव निसीहं, महानिसीहं च संलत्तं // 20/5 // अह तं न होइ एयं, एवं आयारमाइ वि तयन्नं / तुल्ले वि नंदिपाढे, को हेऊ विसरिसत्तम्मि // 20/6 // अह दुब्बलिसूरीणं, पराभवत्थं कयं सबुद्धीए / गोटेणं ति मयं नो, इमं पि वयणं अविन्नूणं // 20/7 // पुटुमबद्धं कम्मं, अप्परिमाणं च संवरणमुत्तं / जं तेण दुगं एयं, तं चिय अपमाणमक्खायं // 20/8 // सेसं तु पमाणत्तेण कित्तियं गोट्ठमाहिलुत्तं पि / इग-दुगमयभेय च्चिय, जं सुत्ते निण्हवा वुत्ता // 20/9 //