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________________ गाथा-४७-४८ १८-भिक्षप्रतिमा-पञ्चाशकम् 243 णाणस्स फलं विरई, विरइभावाओ आसवनिरोहो / आसवनिरोहा संवर संवरओ होइ तव विउलो // 19 // तवसो फलं च निज्जर, निज्जरओ होइ कम्महाणी वि / कम्माण खये जीवो, सिद्धो बुद्धो हवइ निच्चो // 20 // [कोबा हस्तप्रत-१००४८] - इति श्रीपञ्चाशकलघुटीका सम्पूर्णम् / / संवत् 1941 रा चैत्रवद अष्टमी 8 दिने लिखिता महर्षि रत्नचंद बृहन्नागोरी लुकागच्छे, // श्रीजैशलमेरे चरमत्तीर्थंकरो, प्रनग[सादात उपरी परत प्रमाणे लीखी छै / / रस्वदीर्घ अक्षरमात्रा की खोट होय तो दोसा नहि है। श्रीभैरवप्रशादात् / / वासी हमीर रहते हैं / दूहो - जब लग मेरू अडत हे, तब लग ससीहर सूर / जब लग पुस्तक ए सदा रहजो गुण भरपूर // || श्री // // श्री // // श्री // // श्री // // श्री / / [इतोऽन्तं यावद् ग्रंथवृत्तिः अभयदेवीया अत्रावतारिता] अथ प्रतिमागतमेवोपदिशन्नाह - एया पवज्जियव्वा, एयासिं जोग्गयं उवगएणं / सेसेण वि कायव्वा, केइ पइन्नाविसेस त्ति // 893 // 18/47 'एय त्ति' अनन्तरोक्तभिक्षुप्रतिमाः ‘पवज्जियव्व त्ति' प्रतिपत्तव्याः / 'एयासिं ति' एतासां प्रतिमानाम् ‘जोग्गयं ति' योग्यताम् ‘उवगएणं ति' प्राप्तेन साधुना / तदन्यस्य को विधिरिति? आह - 'सेसेण वि त्ति' तदन्येनापि 'कायव्व त्ति' विधेयाः / 'केइ त्ति' केचित् 'पइन्नाविसेस त्ति' अभिग्रहविशेषाः / इति समाप्तौ / इति गाथार्थः // 47 / / तानेवाह - जे जम्मि जम्मि कालम्मि बहुमया पवयणुन्नतिकरा य / उभओ जोगविसुद्धा, आयावणठाणमाईया // 894 // 18/48 'जे त्ति' ये प्रतिज्ञाविशेषाः 'जम्मि जम्मि त्ति' यस्मिन् यस्मिन् 'कालम्मि त्ति' अवसरे 'बहुमय त्ति' बहुमता गीतार्थानाम् ‘पवयणुन्नइकरा य त्ति' शासनप्रभावनहेतवोऽद्भुतभूतत्वेन श्लाघानिबन्धनत्वात् / 'उभओ त्ति' उभाभ्यां प्रकाराभ्यां क्रियाया भावतश्चेत्यर्थः। 'जोगविसद्ध त्ति' विशद्धयोगा निरवद्यव्यापाराः / 'आयावणठाणमाइय त्ति' आतापना शीतादिसहनम, स्थानमुत्कटुकादिकम् आदिशब्दाद्विविधद्रव्याद्यभिग्रहग्रहः / इति गाथार्थः // 48 //
SR No.035335
Book TitlePanchashak Prakaranam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmratnavijay
PublisherManav Kalyan Sansthan
Publication Year2014
Total Pages355
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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