________________ 171 गाथा-१८-२४ १३-पिण्डविधान-पञ्चाशकम् तान्येव प्रतिव्यक्ति निर्दिशति धाती दूति निमित्ते, आजीव वणीमगे तिगिच्छा य / कोहे माणे माया, लोभे य हवंति दस एते // 612 // 13/18 पुट्विपच्छासंथव, विज्जा मंते य चुण्ण जोगे य / उप्पायणयाएँ दोसा सोलसमे मूलकम्मे य // 613 // 13/19 जुग्गं / __धात्री, दूती, निमित्तं, आजीवनमाजीवः / वनीपकः सम्बन्धकारी कृपि(प)णः, चिकित्सा च / क्रोधो मानो माया लोभश्च भवन्ति दशैते // 18 // पूर्व-पश्चात्संस्तवः मातृ-पितृ-श्वसुरादिपरिचयः / विद्या मन्त्रश्च ।चूर्णो योगश्चोत्पादनाया दोषा एते / षोडशो मूलकर्म च // 19 // एतान्येव स्वरूपतो व्याचष्टे - धाइत्तणं करेती, पिंडट्ठाए तहेव दूतित्तं / तीतादिनिमित्तं वा, कहेति जच्चाइ वाऽऽजीवे // 614 // 13/20 जो जस्स कोइ भत्तो, वणेइ तं तप्पसंसणेणेव / आहारट्ठा कुणति व, मूढो सुहमेयरतिगिच्छं // 615 // 13/21 कोहप्फलसंभावणपडुपण्णो होइ कोहपिंडो उ। गिहिणो कुणदऽहिमाणं, मायाए दवावती तह य // 616 // 13/22 अतिलोभा परियडती, आहारट्टाएँ संथवं दुविहं // कुणइ पउंजइ विज्जं, मंतं चुण्णं च जोगं च // 617 // 13/23 १अन्नमिह कोउगादि व, पिंडत्थं कुणइ मूलकम्मं तु / साहुसमुत्था एते, भणिया उप्पायणादोसा // 618 // 13/24 पंचगं। धात्रीत्वं स्तन-मण्डन-क्षीरप्रदाना-धारण-क्रीडनरूपं पञ्चविधं करोति पिण्डार्थमाहारार्थम् / तथैव दूतीत्वं दूतीभावम् / अतीतादि निमित्तं वा कथयति त्रिविधम् / जात्यादि वा जातिकर्मशिल्पादि वा आजीवति // 20 // यो भिक्षूपासकादिः यस्य रक्तभिक्ष्वादेः (शाक्यादेः) कश्चिद् भक्तो भक्तिमान्, वनति सम्भजते, तमुपासकादिम् / तत्प्रशंसनैव भिक्षादिप्रशंसनेनैव आहारार्थमाहारनिमित्तं करोति,