________________ बल प्राप्त था / तबसे प्रभु की प्रतिमा भोयरे के रूप में बने घुमटबंध जिनालय में प्रतिष्ठित थी। ___ मणिप्रभसागरजी ने इतिहास के साथ सर्वप्रथम खिलवाड तो सन् 1995 में ही कर दिया था। उनमें तपागच्छीय आचार्यों के योगदान को उन्होंने दबा ही दिये हैं, क्योंकि उनका कहना था कि “मूलनायक प्रभु सिद्धसेन दिवाकरसूरिजी द्वारा प्रतिष्ठित किये गये हैं, अतः उत्थापन नहीं करने है।" तपागच्छीय आचार्यों की बात निकालने के बाद खरतरगच्छीय आचार्यों का इस तीर्थ पर उपकार है, यह बताने हेतु उन्हें पुनः नया इतिहास ढूंढना (रचना) पडा / यानि कि जो इतिहास था उसे उडाकर नया इतिहास बताया जावें जिससे ऐसा भ्रम फैले कि खरतरगच्छ के आचार्यों के योगदान से ही यह तीर्थ भूतकाल एवं वर्तमान में देदीप्यमान है। भूतकाल में इस तीर्थ को खरतरगच्छ के आचार्य ने प्रगट किया, पुनः प्रतिष्ठित किया था, ऐसी गलत भ्रमणा फैलाने हेतु किसी पट्टावली या शिलालेख या चरित्रग्रंथ का कोई उल्लेख न मिलने पर एक स्तवन की कडीओं का आश्रय लेकर अपनी इच्छा को सिद्ध करने के लिए आचार्य श्री जिनमणिप्रभसूरिजी तत्पर हो गये हैं / आचार्य श्री ने यह भी नहीं विचारा कि इसमें स्वयं के ही विधानों का पूर्वापर विरोध आ रहा है (सिद्धसेन दिवाकरसूरिजी द्वारा उत्थापन नहीं करने के पीछे) 2000 वर्ष पूर्व प्रतिष्ठित होने की बात और सं.१७६१ में जिनचंद्रसूरिजी द्वारा पुनः प्रतिष्ठित होने की बात में पूर्वापर विरोध हैं। तथा इस स्तवन की कडीओं में जैसे स्पष्ट कर दिया गया है कि उसमें कहीं पर भी पार्श्वनाथ प्रभु को जिनचंद्रसूरिजी ने प्रकट किये या प्रतिष्ठित किये / ऐसा लिखा ही नहीं है, परंतु स्तवनकार जिनचंद्रसूरिजी ने तो प्रभु के दर्शन द्वारा जीवन-अवतार को सफल बनाने की बात लिखी है, अर्थात् तीर्थयात्रा करके जीवन धन्य बनाने की बात लिखी है। जिससे स्पष्ट फलित होता है कि मूलनायक श्री अवंति पार्श्वनाथ प्रभु पहले से ही मंदिर में बिराजमान थे / अतः सं.१७६१ में खरतरगच्छाचार्य जिनरत्नसूरिजी के पट्टधर आ. श्री जिनचंद्रसूरिजी के द्वारा अवंति पार्श्वनाथ प्रभु को प्रकट करने एवं पुनः प्रतिष्ठित करने की बात केवल भ्रमणा मात्र है। यह सब आखिर क्यों किया जा रहा है ?