________________ इसमें प्रगट थया प्रभु पासजी से यह अर्थ निकलता है कि श्री संघ को भी पता नहीं था कि भगवान भंडारे हुए है, एवं अचानक भाग्य से खुदाई आदि करते समय या अन्य किसी आकस्मिक घटना से पार्श्वनाथ प्रभु की प्रतिमा प्राप्त हुई / स्वयं स्तवनकार लिख रहे हैं कि पार्श्वनाथ प्रभु प्रगट हुए, फिर भी उनके शब्दों के, अर्थ में घाल मेल करके आमंत्रण पत्रिका में लिखा है कि "श्री जिनचन्द्रसूरिजी ने इस स्तवन में लिखा हैं कि वि.सं.१७६१ में अवन्ति पार्श्वनाथ परमात्मा की प्रतिमा को पुनः प्रकट किया गया / " आगे की कडीयों में भी "भेट्या" एवं “जुहार्या" शब्द लिखे हैं, अर्थात् जिनचंद्रसूरिजी ने परमात्मा के दर्शन करते हुए स्तवन की रचना की थी / इस पूरे स्तवन में कहीं पर भी ऐसा उल्लेख ही नहीं है कि जिनचंद्रसूरिजी ने अवन्ति पार्श्वनाथ प्रभु को प्रगट किये एवं उन्हें पुनः प्रतिष्ठित किये। दूसरी बात, आमंत्रण पत्रिका में यूं बढे .... जिर्णोद्धार के कदम.. वाले पन्ने पर इस प्रकार लिखा है "पूज्यश्री ने (गाणिवर मणिप्रभसागरजी) फरमाया मूलनायक परमात्मा महान आचार्य सिद्धसेनदिवाकरसूरि के करकमलों द्वारा दो हजार से अधिक वर्ष पूर्व प्रतिष्ठत हैं। इनका उत्थापन किये बिना जिर्णोद्धार का परम शुभ कार्य करना है।" इस कथन के अनुसार मणिप्रभसागरजी ने माना है कि मूलनायक परमात्मा की प्रतिष्ठा दो हजार वर्ष पूर्व हुई थी एवं बीच में कभी भी उत्थापन एवं पुनःप्रतिष्ठा का प्रसंग नहीं बना / जबकि पीछे बताये अनुसार वे तो वि.सं. 1761 में जिनचंद्रसूरिजी के हाथों से पुनःप्रतिष्ठित हुई, ऐसा बता रहे हैं / दोनों परस्पर विरुद्ध बाते हैं। यह बात भी ध्यान देने योग्य है कि, वि.सं. 1761 में भी जिनचंद्रसूरिजी ने मूलनायक प्रभु को प्रगट एवं प्रतिष्ठित किये होते तो इन बातों का उल्लेख खरतरगच्छ की पट्टावलीयों एवं इतिहास में अवश्य होता तथा : अवंति पार्श्वनाथ प्रभु के मंदिर में कहीं पर तो जिनचंद्रसूरिजी आदि का नाम मिलता, परंतु ऐसा नहीं है। तीसरे एवं अत्यंत महत्वपूर्ण प्रमाण से अब सिद्ध किया जायेगा कि अवन्ति पार्श्वनाथ प्रभु की पुनःप्रतिष्ठा खरतरगच्छीय जिनचंद्रसूरिजी के हाथों से नहीं हुई थी, परंतु तपागच्छीय गुरुभगवंतों के हाथों से हुई थी / वह अत्यंत महत्वपूर्ण ऐतिहासिक प्रमाण स्वयं मूलनायक श्री अवन्ति पार्श्वनाथ प्रभु की