________________ बात की हद तो तब आ गई जब ईन्हो ने पुरा भारत फिरंगीओ को वरदान में दे दिया और इसके कारण भारत की आजादी की लडाई (1857 की) निष्फल हुई... देखे दादा की बडी पूजा का पद... खरतरगच्छ को जीम्मेदार कहेंगे ? कहीं कहते है खरतरगच्छ में दीक्षा लेने वाली स्त्री ऋतुवंत नही होती... कैसी हास्यास्पद व बीभत्स बात है ये ? दादा की बात को स्वीकार न करने वाले अंबड श्रावक को श्राप देकर भिखारी बना दिया... वाह ! दादाबाडी पर दादागिरि : अभी-अभी जिनमणिप्रभसूरिजी ने बीकानेर चातुर्मास के समय दादाबाडी शब्द का रजीस्ट्रेशन करवा लिया... इस समाचार से मूर्तिपूजक अन्य समुदाय जैसे तपागच्छ-अंचलगच्छ-त्रिस्तुतिकगच्छ -पायचंदगच्छ में माहोल गरमाया हुआ है.... वैसे तो रजीस्ट्रेशन केवल धंधाकीय फर्म का ही होता है... 8. हो सकता है भविष्य में आप सब कोई बीजनेस चालु करने का विचार कर रहे हो / इस विषय में सन 1993 में आ. जिनमणिप्रभसूरि द्वारा अगस्त के "जिनेश्वर" में प्रकाशित "दादा सम्बोधन का व्यामोह" नामक लेख जो अत्यंत हास्यास्पद है वह पढने में आया / इसमें लिखा है की... "दादा गुरुदेव नामक चार ही आचार्य इतिहास में लिपिबद्ध है / " यह मान्यता केवल आपकी व्यक्तिगत हो सकती है, सकल संघ की नहीं। दादाबाडी सेंकडो सालो से तपागच्छ में भी है... जैसे आग्रा दादाबाडी, बीकानेर दादाबाडी, दहेगाम (गुजरात) दादाबाडी इत्यादि.. इसी तरह अन्य गच्छो की भी दादाबाडीया अस्तित्व में है / वैसे तो मेरे गाँव में मेरी पर्सनल दादाबाडी भी है... जैसे मेरे पापा के पापा को दादा कहते है और उन्हों ने खरीदी हुई बाडी अर्थात् दादाबाडी शब्द किसी की बपौती नही है....उसका पूर्व में प्रयोग होता था... आज होता है और भविष्य में हम सब करते रहेंगे। अंचलगच्छ के आ. महेन्द्रसूरि रचित शतपदी ग्रंथानुसार जगह-जगह पर खरतरगच्छीय साधु भगवंत अपने गुरुओं के चरण या मूर्ति बीठा देते थे / बस इसी नीति पर प्राचीन तीर्थो पर और गाँव गाँव में दादाबाडी बन गई है।