________________ समकित-प्रवेश, भाग-4 समकित : तो फिर यह प्रति-प्रश्न' खड़ा होता है कि जब एक द्रव्य यानि कि परमात्मा स्वयं-सिद्ध हो सकता है तो सभी द्रव्य यानि कि सम्पूर्ण विश्व क्यों नहीं? प्रवेश : ओह ! यह तो मैंने सोचा ही नहीं था। समकित : हाँ, इन सभी प्रश्न, प्रति-प्रश्नों को विराम देने वाला यह अस्तित्व गुण हैं। जिस गुण के कारण सभी द्रव्य यानि कि सम्पूर्ण विश्व स्वयं-सिद्ध प्रवेश : भाईश्री ! इस विश्व का कोई कर्ता-हर्ता भले ही नहीं हो, लेकिन पालक तो हो ही सकता है ? समकित : नहीं, ऐसा भी नहीं हो सकता। प्रवेश : क्यों ? समकित : यह मैं तुम्हें कल बताता हूँ। कोई कहे कि-अँगूठी तो सोनार ने बनाई है, परन्तु सोनार ने अँगूठी नहीं बनाई, अँगूठी बनाने की इच्छा सोनार ने की है। इच्छा का कर्ता सोनार है परन्तु अँगूठी का कर्ता सोनार नहीं है, सोनार तो मात्र निमित्त है, उसने अँगूठी नहीं बनाई है। अंगूठी का कर्ता सोना है, सोने में से ही अंगूठी हुई है। उसी प्रकार चैतन्य (जीव) की जो भी अवस्था होती है वह चैतन्य द्रव्य से अभिन्न होने से उसका कर्ता चैतन्य है और जड़ (अजीव) की जो भी अवस्था हो वह जड़-द्रव्य से अभिन्न होने के कारण उसका कर्ता जड़ है। प्रत्येक द्रव्य स्वतन्त्र है, कोई किसी का कुछ कर नहीं सकता। स्वतन्त्रता की यह बात समझने में मँहगी लगती है, परन्तु जितना काल संसार में गया उतना काल मुक्ति प्रगट करने में नहीं चाहिये, इसलिये सत्य वह सुलभ है। यदि सत्य मँहगा हो तो मुक्ति होगी किसी की ? इसलिये जिसे आत्महित करना हो उसे सत्य निकट ही है। -गुरुदेवश्री के वचनामृत 1.cross-question 2.pause 3.entire 4.guardian