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________________ समकित-प्रवेश, भाग-3 भगवान का अतींद्रिय ज्ञान सुख का कारण है, क्योंकि भगवान उससे अपने आत्मा को जानकर, उसमें अपनापन कर, उसमें लीन होकर तरह-तरह के मोह, राग-द्वेष/कषाय/इच्छाओं का अभाव (खातमा) कर अनंत सुखी हो गये है। प्रवेश : अच्छा, इसीलिये कहा जाता है कि भगवान ने इंद्रियों को जीत लिया समकित : हाँ, भगवान ने इंद्रियों को जीत लिया है, इसलिये जिनेंद्र या जिन कहलाते हैं लेकिन आज-कल जिन के अनुयायी' कहलाने वाले जैन रसना इंद्रिय के विषय-स्वाद के इतने गुलाम बनते जा रहे हैं कि स्वाद के लिए कुछ भी खा लेते हैं। भक्ष्य-अभक्ष्य का भी विचार नहीं रखते। प्रवेश : यह भक्ष्य-अभक्ष्य क्या होता है ? समकित : यह मैं बाद में बताऊँगा। तुम इस बारे में घर पर पूछकर आना क्योंकि यह सिखाना तो घर वालों का ही काम है। पाँच इन्द्रियों सम्बधी किन्हीं भी विषयों में आत्मा का सुख नहीं है, सुख तो आत्मा में ही है-ऐसा जानकर सर्व विषयों में से सुख बुद्धि दूर हो और असंगी आत्मस्वरूप की रुचि हो, तभी वास्तविक ब्रह्मचर्यजीवन होता है। ब्रह्मस्वरूप आत्मा में जितने अंश परिणमनआत्मिक सुख का अनुभव हो उतने अंश में ब्रह्मचर्य जीवन है। जितनी ब्रह्म में चर्या उतना पर विषयों का त्याग होता है। जो जीव परविषयों से तथा परभावों से सुख मानता हो उस जीव को ब्रह्मचर्य जीवन नहीं होता, क्योंकि उसको विषयों के संग की भावना विद्यमान है। वास्तव में आत्मस्वभावकी रुचि के साथ ही ब्रह्मचर्यादि सर्व गुणों के बीज पड़े हैं। इसलिये सच्चा ब्रह्मजीवन जीने के अभिलाषी जीवों का प्रथम कर्तव्य यह है कि-अतीन्द्रिय आनन्द से परिपूर्ण तथा सर्व परविषयों से रहित ऐसे अपने आत्मस्वभाव की रुचि करें, उसका लक्ष करें, उसका अनुभव करके उसमें तन्मय होने का प्रयत्न करें। -गुरुदेवश्री के वचनामृत 1.follower
SR No.035325
Book TitleSamkit Pravesh - Jain Siddhanto ki Sugam Vivechana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalvardhini Punit Jain
PublisherMangalvardhini Foundation
Publication Year2019
Total Pages308
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size117 MB
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