________________ पाप समकित : कल हमने मिथ्यात्व और कषाय के बारे में समझा / साथ ही हमने यह भी देखा था कि तीव्र-कषाय को ही पाप कहते हैं। प्रवेश : और पुण्य ? समकित : जैसे तीव्र-कषाय पाप कहलाती है, वैसे ही मंद-कषाय पुण्य कहलाती प्रवेश : क्या ? पुण्य भी कषाय का ही प्रकार' है ? कैसे ? समकित : हाँ, कल हमने देखा था कि स्वयं मे लीन न होकर, दूसरों में ही लीन रहना कषाय है। जब हम स्वयं में लीन नहीं होते तब दूसरों में लीन होते हैं यानि कि दूसरों का कुछ न कुछ करना चाहते हैं। दूसरों का अच्छा करना/चाहना, वह मंद कषाय यानि कि पुण्य है और दूसरों का बुरा करना/चाहना, वह तीव्र कषाय यानि कि पाप है। प्रवेश : पाप तो पाँच होते हैं न ? समकित : हाँ ! 1. हिंसा 2. झूठ 3. चोरी 4. कुशील 5. परिग्रह-सग्रह', ये पाँच पाप तो कषाय रूप हैं। लेकिन इनसे भी बड़ा पाप है-मिथ्यात्व। मिथ्यात्व सब पापों का बाप है। मिथ्यात्व जैसे बड़े पाप के छूटे बिना कषाय जैसे छोटे पाप सही मायनों में नहीं छूटते। इसलिये हमें सबसे पहले मिथ्यात्व छोड़ने का प्रयास करना चाहिए। प्रवेश : हाँ, मिथ्यात्व के बारे में तो आपने पिछली कक्षा में बताया था। अब हिंसा, झठ, चोरी, कशील व परिग्रह के बारे में भी बता दीजिये। ताकि हम बड़े-छोटे सभी पापों को छोड़ सकें। समकित : ठीक है, ध्यान से सुनो ! 1.type 2.violence 3.lie 4.theft 5.characterlessness 6.possessions-gathering 7.effort