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________________ समकित-प्रवेश, भाग-8 273 भले ही स्वद्रव्य है लेकिन वास्तव में (शुद्धनय से) तो स्वद्रव्य भी अपनी पर्याय का कर्ता नहीं हो सकता क्योंकि द्रव्य अपरिणामी (नहीं बदलने वाला) और निष्क्रिय (कुछ भी क्रिया न होना) और अकर्ता (कुछ न करने वाला) होता है लेकिन पर्याय परिणामी (बदलने वाली) और क्रियाशील होती है। इसलिये पर्याय ही पर्याय की कर्ता है। पर्याय के षटकारक पर्याय में ही मौजूद रहते हैं। पर्याय को अपने कारक बाहर खोजने नहीं जाने पड़ते क्योंकि पर्याय भी एक समय का सत् है व सत निरपेक्ष होता है। उसे दूसरे सत की अपेक्षा नहीं होती यानि कि पर्याय के पास वो सारी व्यवस्था है कि वह स्वाधीनता-से अपने कर्म को कर सके इसलिये पर्याय ही पर्याय ही यथार्थ (निश्चय) कर्ता है। प्रवेश : यह अत्यंताभाव क्या होता है ? समकित : वह मैं कल बताऊँगा। प्रवेश : यह बात लॉजिक से तो समझ में आ गयी लेकिन इसका उपयोग क्या है, क्यों इतनी मगजमारी करनी ? समकित : अरे भाई अंत में जाकर तो इसी का उपयोग करना है क्योंकि अकर्ता, निष्क्रिय और अपरिणामी द्रव्य के आश्रय (ज्ञान-श्रद्धान-लीनता) से ही तो सच्चे सुख (निराकुलता) की प्राप्ति होती है, मोक्ष का मार्ग प्रारंभ होता है, मोक्ष होता है। प्रवेश : जरा विस्तार से बतायें। समकित : कल बताया था न कि जब हम अपने दुःखों का कर्ता दूसरों को मानते हैं तब शास्त्र कहते हैं कि दूसरे हमारे दुःखों के कर्ता नहीं हैं, हमारे कर्म ही हमारे दुःखों के कर्ता हैं। फिर जब हम द्रव्य-कर्मों को दोष देने लगते हैं तब शास्त्र कहते हैं कि द्रव्य-कर्म तो जड़ हैं, हम स्वयं ही अपने दुःखों के कर्ता हैं। फिर जब हम अपने त्रिकाली ध्रव अंश को ही दोषी मानने लगते हैं तब शास्त्र कहते हैं कि त्रिकाली ध्रुव अंश तो निर्दोष है, अपरिणामी, निष्क्रिय और अकर्ता है। दुःख की पर्याय की कर्ता तो वह पर्याय स्वयं है। 1.independent 2.dependency 3.means 4.independently 5.intended-task 6.blame 7.faulty 8.faultless 9. non-transforming
SR No.035325
Book TitleSamkit Pravesh - Jain Siddhanto ki Sugam Vivechana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalvardhini Punit Jain
PublisherMangalvardhini Foundation
Publication Year2019
Total Pages308
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size117 MB
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