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________________ समकित-प्रवेश, भाग-8 253 चतुष्टय प्रगट हो चुके हैं। प्रवेश : लेकिन अरिहंत दशा में अघातिया कर्म तो बाकी रहते हैं ? समकित : अघातिया कर्म कहाँ आत्मा के स्वभाव (अनुजीवी गुणों) का घात (नुकसान) करते हैं ? उनके निमित्त से तो शरीर आदि मिलते हैं। लेकिन शरीर आदि के होते हुए भी अरिहंत भगवान तो पूर्णरूप-से स्वयं में लीन हैं, वीतरागी हैं, शरीर आदि से उनको कुछ लेना-देना ही नहीं है। शरीर आदि के बीच में रहकर भी वे उनसे जुदा हैं। शरीर आदि अपनी योग्यता से अपना काम करते रहते हैं। प्रवेश : शरीर तो पुद्गल है, वह स्वयं कैसे अपना काम करता है ? समकित : क्यों, पुद्गल क्या द्रव्य नहीं है ? क्या उसमें वस्तुत्व नाम का गुण नहीं है कि वह अपना प्रयोजनभूत कार्य स्वयं कर सके ? अरे ! भगवान का शरीर क्या, हमारा शरीर भी अपना काम स्वयं ही करता है। बस अंतर इतना है कि हम अपने मोह, राग-द्वेष के कारण यह मानते रहते हैं कि शरीर आदि मेरे हैं, उनकी क्रियाओं का कर्ता मैं हूँ या जैसा मैं चाहता हूँ वैसे ही शरीर आदि चलते हैं। वहीं अरिहंत भगवान पूर्ण वीतरागी होने से ऐसा न मानते हैं और न ही ऐसा करने का सोचते हैं। प्रवेश : हम हाथ हिलाने का सोचते हैं इसीलिये तो हाथ हिलता है न ? समकित : यदि ऐसा है तो पैरेलिसिस (लकवा) के मरीज का भी हाथ हिलना चाहिये। उसकी इच्छा तो हमसे भी ज्यादा तीव्र होती है हाथ-पैर हिलाने की, चलने की, दौड़ने की। प्रवेश : भाईश्री ! इसका मतलब यह हुआ कि शरीर आदि की योग्यता जब चलने की होती है तब वह स्वयं चलते हैं और नहीं चलने की होती तब वह स्वयं नहीं चलते हैं। हम बेकार में ही विकल्प कर-कर के अपने भ्रम को पुष्ट करते रहते हैं। 1. completely 2. seperate 3. ability 4.intended 5.self 6.activities 7.doer 8.patient 9.intense 10.strong
SR No.035325
Book TitleSamkit Pravesh - Jain Siddhanto ki Sugam Vivechana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalvardhini Punit Jain
PublisherMangalvardhini Foundation
Publication Year2019
Total Pages308
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size117 MB
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