________________ समकित-प्रवेश, भाग-8 243 प्रवेश : भाईश्री ! मुनिराज को आहार, विहार, निहार व स्वाध्याय आदि की क्रिया इसी गुणस्थान में होती है ? समकित : हाँ, देखो शुभ-उपयोग भी अशुद्ध-उपयोग ही होने से उसे यहाँ प्रमाद कहा है और इसीलिये इस गुणस्थान का नाम भी प्रमत्त-संयत है। प्रवेश : छठवें गुणस्थान का काल' (समय) कितना है ? समकित : छठवें गुणस्थान का समय भी अंतर्मुहूर्त है। लेकिन अंतर्मुहूर्त भी कई तरह के होते हैं। छठवें गुणस्थान का अंतर्मुहूर्त सातवें गुणस्थान से दोगुने समय का है। मुनिराज अंतर्मुहूर्त सातवें गुणस्थान (शुद्धोपयोग) और अंतर्मुहूर्त छठवें गुणस्थान (शुभोपयोग) में रहते हैं। इस प्रकार मुनिराज पूरे दिन छठवें-सातवें गुणस्थान में झूलते रहते हैं। यहाँ एक बात याद रखना कि गुणस्थान संबंधी यह सारा कथन पारमार्थिक दृष्टिकोण व स्थूल तरीके से किया जा रहा है। विशेष जानने के लिए आगम का अभ्यास करना। प्रवेश : धन्य हैं मुनिराज ! वे तो साक्षात् परमात्मा के पुत्र हैं ! समकित : बिल्कुल ! हम तो ऐसे मुनिराजों के दासानुदास हैं। शेष आगे ..... अखण्ड द्रव्यको ग्रहण करके प्रमत्त-अप्रमत्त स्थिति में झूले वह मुनिदशा ! मुनिराज स्वरूपमें निरंतर जागृत हैं, मुनिराज जहाँ जागते हैं वहाँ जगत सोता है, जगत जहाँ जागता है वहाँ मुनिराज सोते हैं। ‘मुनिराज जो निश्चयनयाश्रित, मोक्षकी प्राप्ति करें। निर्विकल्प दशा में 'यह ध्यान है, यह ध्येय है' ऐसे विकल्प टूट चुकते हैं। यद्यपि ज्ञानी को सविकल्प दशा में भी दृष्टि तो परमात्मतत्त्व पर ही होती है, तथापि पंच परमेष्ठी, ध्याता-ध्यान-ध्येय इत्यादि सम्बन्धी विकल्प भी होते हैं, परन्तु निर्विकल्प स्वानुभूति होने पर विकल्पजाल टूट जाता है, शुभाशुभ विकल्प नहीं रहते। उग्र निर्विकल्प दशा में ही मुक्ति है। ऐसा मार्ग है। -बहिनश्री के वचनामृत 1.period 2.double 3.slave of slaves