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________________ 230 समकित-प्रवेश, भाग-7 शुभ-अशुभ विभाव अभाव कीन / स्वाभाविक परिणतिमय अछीन / / 5 / / अष्टादश दोष विमुक्त धीर। स्व-चतुष्टयमय राजत गंभीर / / मुनि गणधरादि सेवत महंत / नँव केवल लब्धिरमा धरंत / / 6 / / तुम शासन सेय अमेय जीव / शिव गये जाहिं जैहैं सदीव / / भवसागर में दुःख छार वारि। तारन को और न आप टारि / / 7 / / यह लखि निज दुःखगद हरणकाज / तुमही निमित्त कारण इलाज / / / जाने तातें मैं शरण में शरण आय। उचरो निज दुःख जो चिर लहाय / / 8 / / सारांश- भव्य जीव आपकी परम् शान्तमुद्रा' को देखकर अपनी आत्मा की अनुभूति प्राप्त करने का लक्ष्य करते हैं। भव्य जीवों के भाग्य से और आपके वचनयोग से आपकी दिव्यध्वनि होती है, उसको श्रवण कर भव्य जीवों का भ्रम नष्ट हो जाता है / / 3 / / आपके गुणों का चितवन करने से स्व और पर का भेद-विज्ञान हो जाता है और मिथ्यात्व-दशा में होने वाली अनेक आपत्तियाँ (विकार) नष्ट हो जाती हैं। आप समस्त दोषों से रहित हो, सब विकल्पों से मुक्त हो, सर्व प्रकार की महिमा धारण करने वाले और जगत के भूषण (सुशोभित करनेवाले) हो।।4।। हे परमात्मा ! आप समस्त उपमाओं" से रहित, परम-पवित्र, शुद्ध व चेतन (ज्ञान-दर्शन) मय हो। आप में किसी भी प्रकार का विरोध भाव नहीं है। आपने शुभ और अशुभ दोनों प्रकार के विकारी-भावों का अभाव कर दिया है और स्वभाव-भाव से युक्त हो गये हो, अतः कभी भी क्षीण" दशा को प्राप्त होने वाले नहीं हो।।5।। 1.peaceful-posture 2. self-experience 3.aim 4.fortune 5.sermons 6.delusion 7.false-belief 8.flaws9.worries 10.glory 11.compassion 12.adverse 13.inferior
SR No.035325
Book TitleSamkit Pravesh - Jain Siddhanto ki Sugam Vivechana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalvardhini Punit Jain
PublisherMangalvardhini Foundation
Publication Year2019
Total Pages308
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size117 MB
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